चेहरे
और
चेहरों की
भीड़
के बीच
सच
आदमी
की
आदत
नहीं रहा अब।
सच
केवल
घर के
आंगन
में बोया जाने वाला
बोनसाई
पौधा है
जो
बाहरी खूबसूरती का
चेहरा है।
बोनसाई
हो जाना
सच की नहीं
आदमी के
सख्त मुखौटे
की मोटी सी दरार है।
सच
दरारों में
ही पनपता है
अनचाहे पीपल की तरह...।
जवाब देंहटाएंबोनसाई
हो जाना
सच की नहीं
आदमी के
सख्त मुखौटे
की मोटी सी दरार है।...बहुत खरी खरी बात कह दी आपने, आपकी सटीक बात को नमन है ।
बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी...।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 25 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका
हटाएंसच
जवाब देंहटाएंदरारों में
ही पनपता है
अनचाहे पीपल की तरह...सच में सच को बहुत ही सुंदर परिभाषा में व्यक्त किया है।
सादर
अनचाहे पीपल की तरह सच का पनपना कैसी कैसी विडम्बना है!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन - - साधुवाद सह।
जवाब देंहटाएंयानि सच अनचाहा हो गया .... विकट स्थिति है ।
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