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पुरवाई

Thursday, March 25, 2021

इस जंगल में अब कोई पेड़ नहीं है


जिंदगी

और कैसी है

कुछ

ऐसे ही जीते हैं

कुछ ऐसे

हो जाते हैं।

जीवन का 

यदि कोई

चित्र खींचा जाए

तब

वह

कुछ इसी तरह का होगा।

कुछ जो

दमक रहा है

वह

हमारी

चेतना है

लेकिन

उलझनों के बीच

वह

सतत

छोटी हो रही है।

चेतना के बीच

ये जंगल हमीं ने बुना है

हम

ऐसे ही

खुश हैं

हम

इन उलझनों वाले

धागों पर रोज सफर

तय करते हैं

कूदते हैं

टूटते हैं

और 

इन्हीं में बसे हमारे घर में

थककर सो जाते हैं।

सोचता हूँ

बुना हुआ जीवन

और चुने हुए रास्तों में

हम

कितने साथ हैं

कितने अकेले।

इस जंगल में

अब कोई पेड़ नहीं है

केवल हैं

ऐसे ही

उलझे से

जीवन के चित्र।

11 comments:

  1. जी बहुत आभार आदरणीय शास्त्री जी।

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  2. आदरणीय शास्त्री जी आभार...। रंगों का उत्सव खुशियों के रंग बरसाए...।

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  3. अत्यंत खूबसूरत भाव को उकेरा है आपने

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    1. बहुत आभार आपका अनीता जी...।

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  4. मुग्ध करती रचना - - शुभकामनाओं सह।

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    1. बहुत आभार आपका शांतनु जी...।

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  5. सार्थक सृजन

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    1. बहुत आभार आपका ओंकार जी...।

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  6. भावभीनी रचना

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    1. बहुत आभार आपका अनीता जी...।

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