घर की खिड़की
पर
सीले
दरवाजे
की
एक फांस
में
लटका है
बचपन।
बंद
घर को
झीरियां
जीवित रखती हैं
वहां से आती
हवा
से
सीलती नहीं हैं
घर की यादें
बचपन
और
बहुत कुछ
जो
जिंदगी
अकेले में
एकांत में बुनती है।
एकांत में
बुने गए
दिनों पर
अब
समय के जाले हैं।
खिड़की
की वो
फांस
उम्रदराज़
दरवेश है
जो
संभाले है
मौन
के बीच सच
और
बचपन
और
यादें...।
खिड़की का दूसरा
हिस्सा
अकेलेपन के बोझिल
मौसम की पीड़ाएँ
झेल रहा है
वो
जानता है
फांस
और
उसके कर्म में
आए
बदलाव
और
झूलते बचपन
के बीच
बीतते
उम्र के कालखंड की
बेबसी को...।
ये
घर
और खिडक़ी
एक दिन
किताब
में गहरे समा जाएंगे...।
जी...आभार आपका यशोदा जी...।
ReplyDeleteअच्छी कविता
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका...।
Deleteवाह!अलग अंदाज लेखन का ,गहन भावाभिव्यक्ति,
ReplyDeleteसुंदर सृजन।
जी बहुत आभार आपका।
Deleteअनुभूतियों का अथाह सागर है आपके पास, और आप उसके एक एक मोती अपनी रचना को समर्पित करते हैं ...सुंदर सृजन
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी...। मन खोजता रहता है प्रकृति में कभी अपने आप को, कभी प्रकृति को...।
Deleteबहुत बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका आलोक जी...।
Deleteखिड़की से झांकती जीवन की सच्चाई ..… न जाने कितने लम्हे समेटे हुए और उम्र भर के अनुभव ।
ReplyDeleteकुछ फांस ऐसी लगी होती हैं जो ज़िन्दगी भर नहीं निकलती ।
सुंदर अभिव्यक्ति
जी बहुत आभार आपका संगीता जी....।
Deleteवाह ! बहुत खूब
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका आदरणीय भाईसाहब।
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