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पुरवाई

Sunday, May 2, 2021

जंगल, कंटीला जंगल


 मैं सूखा कहता हूँ

तुम रिश्तों का 

जंगल दिखाते हो।

मैं दरकन कहता हूँ

तुम टांकने के 

हुनर पर 

आ बैठते हो।

मैं जमीन कहता हूँ

तुम अपना कद 

बताते हो।

मैं आंसुओं के 

नमक पर कुछ कहता हूँ

तुम मानवीयता का 

देने लगते हो हलफनामा। 

मैं प्यास कहता हूँ 

तुम

सदियों पुरानी जीभ 

फिराते हो

नागैरत होंठों पर।

मैं जंगल कहता हूँ

तुम चतुर 

इंसान हो जाते हो।

बस 

अब मैं कुछ नहीं कहूँगा

केवल देखूंगा 

तुम्हारी पीठ पर 

इच्छाओं का पनपता 

कंटीला जंगल...।

13 comments:

  1. जी आभार आपका आदरणीय रवींद्र जी।

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  2. वाह,सच्चाई बयां करती सुंदर रचना ।

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  3. अब मैं कुछ नहीं कहूँगा
    केवल देखूंगा
    तुम्हारी पीठ पर
    इच्छाओं का पनपता
    कंटीला जंगल...।
    गहन भावाभिव्यक्ति संदीप शर्मा जी!

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  4. इच्छाओं का कोई अंत नहीं और वही तो भरमाती आयी हैं मानव को सुख-सुविधाओं के नाम पर

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  5. अच्छी और उत्कृष्ट रचना।

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  6. संवेदनशील व्यक्ति को अंततः तथाकथित व्यावहारिक व्यक्तियों से यही कहना पड़ता है संदीप जी कि अब मैं कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि उसकी बात न सुनी जा रही है, न सुनी जाएगी। निहित स्वार्थ कानों पर पट्टी जो बांध देते हैं।

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  7. केवल देखूंगा
    तुम्हारी पीठ पर
    इच्छाओं का पनपता
    कंटीला जंगल...।
    इच्छाओं का कंटीला जंगल!सुंदर अभिव्यक्ति!--ब्रजेंद्रनाथ

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