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पुरवाई

Saturday, May 29, 2021

छत पर ठहाकों की हाजिरी


 घर

कुछ

पिल्लरों पर

टेकता है

अपना भारी भरकम शरीर।

पहले

उन्हें खुशियां

कहा जाता था

अब

कर्ज में

दबे

व्यक्ति का चीत्कार।

पहले घर की

जमीन और दीवारें

हरदम साथ

महसूस होती थीं

अब

जमीन पर

कोई है कहां।

घर बड़े हो गए हैं

आदमी हो रहा

बहुत छोटा।

कच्चे

घर की दीवारों की

दरारें भी

कच्ची होती थीं

मन के लेप से

भर जाया

करतीं थीं।

अब घर और दीवारें

पक्की हैं

दरारें

नज़र नहीं आतीं

होती हैं

आसानी से

भरी नहीं जातीं।

पहले

जिसकी छत

वो

सबसे धनी

कहा जाता था

हवा और धूप

खुलकर पाता था।

अब छतें हैं

हवा

और धूप भी हैं

बस

आदमी

का रिश्ता

उस छत से

टूट गया।

पहले रोज पूरा

घर

छत पर

ठहाकों की हाजिरी

लगाता था

अब

पूरी उम्र

छत के नीचे

ही बिताता है

ठहाकों को छत पर

कहीं

छोड़ आई है

ये नई सदी...।

8 comments:

  1. संदीप जी,घर का आंगन हो छत हो वो लोगों के बिना गुलजार हो हो नहीं सकते,मैने भी छत पर संयुक्त परिवार का भरपूर आनंद उठाया है,सुंदर सृजन ।

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    1. जी बहुत आभार आपका स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए जिज्ञासा जी। घर की छत और संयुक्त परिवार का साथ...ओह जैसे अतीत की बातें हो गईं...। एक परिवार में कितने लोग होते थे, एक परिवार रोज उत्सव मनाता था, कैसे थे वे दिन और कैसे हो गए हैं आज के दिन...छतें हैं लेकिन खाली हैं, एकल परिवार अब घतों पर नहीं घरों में रहना पसंद करते हैं...। बहुत आभार आपका।

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  2. आज के जीवन के कटु सत्य को सहजता से कह दिया है । अब तो न ज़मीन है अपनी और न ही छत । बीच में लटका है आदमी ।।
    चार दिवारी में रहते हुए दो इंसान कब मौन साधना की ओर बढ़ जाते हैं पता ही नहीं चलता । अपनी अपनी सोचों में गुम कब अजनबी बन जाते हैं एहसास ही नहीं होता ।
    बहुत भावनात्मक रचना ।

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    1. जी बहुत आभार आपका संगीता जी।

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  3. ठहाकों को छत पर
    कहीं
    छोड़ आई है
    ये नई सदी...
    .. सच अब तो सब अपने में मगन रहते हैं, सब अपनी अलग-अलग दुनिया में रमे जाने किस ओऱ जा रहे है, पता नहीं किसी को भी
    मन को कुरेद गईं आपकी रचना

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    1. जी बहुत आभार आपका कविता जी।

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  4. सटीक रचना
    बेहतरीन

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  5. जी बहुत आभार आपका सरिता जी।

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