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पुरवाई

Thursday, May 6, 2021

काश वो सब देख लिया होता


 हमें 

नज़र नहीं आतीं

पेड़ों की अस्थियां 

और उन पर रेंगते 

समय की पीठ पर

हमारे कुचक्र।

हमें 

नज़र नहीं आते

सूखे 

पेड़ों के जिस्मों पर

कराहती कतरनें।

हमें

नज़र नहीं आती

उम्रदराज़ पेड़ों 

की पिंडलियों की सूजन।

हमें नज़र नहीं आती

उनके 

शरीर पर 

अंकुरण का गर्भ होती

मिट्टी भरी छाल।

हमें नज़र 

नहीं आता

वृक्ष और आदमी के बीच

अपंग होता रिश्ता।

ओह !

कितना कुछ 

नहीं देखा 

हमने अपने जीवन में..।

हमने देखे 

केवल खिलती 

कलियां

फूलों के रंग

उनकी खुशबू पर 

बहकता भंवरा

आरी

कुल्हाड़ी

मकान 

सड़क

सुविधाएं

अपने बरामदे

अपने 

दालान

अपने बच्चे

अपना जीवन।

जंगल 

को शहर बनाने 

का सपना

और

भी बहुत कुछ...।

देखना 

हमारी आवश्यकता नहीं

हमारी 

होड़ है

अपने से

प्रकृति से

जंगल से...।

हम सब भाग रहे हैं

हमारे पीछे 

शहर

फिर 

हमारे कर्म

फिर 

बेबस और बेसुध पीढ़ी...

काश

वो सब 

देख लिया होता

कुछ ठहरकर...।

12 comments:

  1. वाह!बिल्कुल सही कहा आपने।

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    1. आभार आपका शिवम जी...।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०८-०५ -२०२१) को 'एक शाम अकेली-सी'(चर्चा अंक-४०५९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. आभार आपका अनीता जी...।

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  4. सुंदर कविता ये समय सच में विचार करने का है।

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  5. प्रकृत‍ि को अपने शब्दों में बहुत खूबसूरती से प‍िरोया संदीप जी..वाह

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  6. वाकई आदमी की आँख वही सब देखती है जिसमें उसका लाभ छिपा होता है पर वह एक दिन उसके खुद के लिए ही बोझ बन जाता है

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  7. बेहतरीन रचना।

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  8. हमने पहले कहीं पढ़ा था कि पेड़ों को भी दर्द होता है जब उनकी टहनियां काटते हैं या पत्ते और फूल तोड़ते हैं ....
    बहुत सुन्दर रचना ...

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  9. पेड़-पौधे, पालतू जानवर परिवार के सदस्य हुआ करते थे. जब से वो पीछे छूटे, परिवार भी टूटे और बिछड़ गए. टोकने के लिए, अहसास दिलाने के लिए शुक्रिया.

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  10. यह रचना शब्दों की जाल नहीं, सच का हाल है जो अब जा कर दिखा है...जब स्थिति हद से ज़्यादा बुरी हो गई।
    आपने बहुत बढ़िया लिखा है....मैं मानता हूं आप इसके माध्यम से सबको अपने विचारों पर फिर से विचार करने के लिए बाध्य करेंगे। शुभकामना इतनी मार्मिक रचना लिखने के लिए।

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