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पुरवाई

Sunday, May 30, 2021

बहुत सा बाकी है अभी

 


कितना सबकुछ 

छूट जाता है ना पीछे

समय के साथ।

मां की गोद

उसका वो 

अकेले क्षणों का दुलार।

चिंता वाली 

वो सलवटें

जो माथे पर 

अगले ही पल सुस्ताने लगतीं 

खुशी से 

हमें ठीक पाकर। 

हमें पहले पहल

पैरों चलाने वाली 

वो उंगली।

वो घर का दालान

जिसे हम पहली बार

करते हैं पार।

मां 

के हाथ का अचार 

उसका स्वाद

वो

स्वाद और मां के भरोसे 

वाली बरनी। 

सच कितना सबकुछ छूट जाता है

वो पहला

बस्ता

पहली 

सिलेट

पहली कलम

पहली

कापी

जिस पर हमने उकेरी थीं

पहली बार

मनचाही लकीरें

जिन्हें

सीधा करना सिखाया था

रसोई से थककर 

अक्सर आ बैठने वाली पसीना पोंछती 

मां ने। 

वो 

रंग 

वो कपडे

जो मां ने दिलवाए थे

अपनी पसंद के

हम बड़े हो गए 

कपडे 

अब भी मां की

उम्मीद पर

खरे उतर रहे हैं

वे छोटे ही हैं

अब बचपन की यादें उन्हें

पहना करती हैं।

सच कितना सबकुछ छूट जाता है 

पीछे

गलतियों पर 

मां

का कवच हो जाना

पिता 

के सामने आकर

अक्सर बचाना

अकेले में बैठकर

रिश्तों को समझाना

गलती पर डांटना

पिता के नेह सागर मन तक

हमें पहुंचाना

दोबारा गलती न करने का

अहसास करवाना

पिता और हमारे बीच 

अक्सर सेतु बन जाना।

कितना सबकुछ पीछे छूट जाता है

रात तक मां के जागने पर

कभी कभी खुलने वाली हमारी पलकें

और 

उनमें छिपी चिंता।

सफलता के पहले ही

अलसुबह

गूंथकर बनाए गए 

बेसन के लड्डू

जो 

भरोसे पर खरे उतरते 

ही थे।

गर्व से बाजू में बैठकर

हमारी समझदारी भरी बातें

सुनकर

मन ही मन उसका मुस्कुराना।

अब

हमें लगता है हम समझदार हो गए

और

जिम्मेदारियां हमें दूर ले आईं

बहुत दूर। 

अब

मां

बूढ़ी

उम्रदराज होकर

अकेले ही सहलाती है

अपने शरीर की

सख्त झुर्रीदार त्वचा को

ये कहते हुए कि

छोटा आया नहीं बहुत समय हुआ अब तक

पूछना तो अबकी कब लौटेगा। 

वो खुश हो जाती है

केवल आवाज सुनकर

वो

जी उठती है

केवल देखकर।

वो सी लेती है

पता नहीं कैसे

अब भी इस उम्र में

उस पुराने और इस नये

वक्त के 

बदलावों से 

रिश्तों में आने वाली उधड़न को।

मां के पास अब भी है

वो 

नेह भरा जादू

जो 

पढ़ लेता है

अक्सर

हमें

हमारे जीवन 

हमारी उलझनों

हमारे

अनकहे सच को।

वैसे

मां अक्सर कहती है

बेटा

अब दिखाई कम देने लगा है

ये 

आंखें

बनवानी पड़ेंगी दोबारा

और मैं 

मुस्कुरा देता हूं

उससे लिपटकर

जब भी 

होता हूं उसके करीब।

बहुत सा 

बाकी है अभी

जो 

मां के पास ही मिलता है

मां 

से ही मिलता है

अक्सर मां

पिता हो जाती है

पिता के जाने के बाद।


23 comments:

  1. माँ की ममता का कोई मूल्य नहीं. सौभाग्यशाली हैं वो जिनके पास माँ है.

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    1. जी सच बात है मां जिनके पास है वे सबसे खुशनसीब हैं।

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  2. माँ की ममता का कोई मूल्य नहीं. सौभाग्यशाली हैं वो जिनके पास माँ है.

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  3. बहुत खूब और सत्य लिखा संदीपजी

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  4. माँ तो बस माँ होती है, उसके पास एक ऐसा खजाना होता है जो कभी नहीं चूकता, सुंदर सृजन !

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    1. बहुत आभार आपका अनीता जी।

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  5. माँ की खातिर आपके सृजन की अनुभूतियों को हृदय के बहुत करीब पाती हूँ । निशब्द हूँ इस सृजन पर ...माँ के मन की गहराईयो को शब्दरुप देने के लिए आभार ।

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    1. जी बहुत आभार आपका मीना जी। मां के लिए भावनाओं का अतिरेक नहीं होता वह प्रवाह हमेशा ही एक सा होता है। आभार आपका

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  6. बहुत आभार आपका कामिनी जी। मेरी रचना को सम्मान देने के लिए बहुत आभार।

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  7. मां पर जितना लिखा जाय कम ही है, आपकी यह प्रस्तुति मन और जिगर में घर कर गयी , सुन्दर

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    1. बहुत आभार आपका आदरणीय राणाजी।

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  8. मां को समर्पित सुंदर भावों भरी अभिव्यक्ति,सच में भाव विभोर कर गई,आपने कितनी गहनता से मां की सार्थकता का सुंदर अति सुंदर विश्लेषण किया, आपको हार्दिक शुभकामनाएं ।

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  9. आभार आपका जिज्ञासा जी। मां पर लिखना आसान भी है कठिन भी...। मां ही हमारे अंदर संस्कार बोती है वही उन्हें पल्लवित करती है।

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  10. माँ तो बस माँ होती है... बहुत सुन्दर प्रस्तुति!

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  11. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  12. हम बड़े हो गए /कपडे /अब भी मां की/उम्मीद पर/खरे उतर रहे हैं/वे छोटे ही हैं/अब बचपन की यादें उन्हें/पहना करती हैं।////
    रचना के भावोद्गार बहुत मार्मिक हैं संदीप जी | इस रचना में अक्षरशः अपनी माँ को देख रही हूँ जो पिताजी के ना रहने पर वर्षों परिवार को एक अथक योद्धा की तरह संभाल रही है |बेटियों के साथ माँ का रिश्ता बहुत गहरा होता है पर बेटे के लिए भी माँ की भूमिका सदैव एक स्नेही वृक्ष की -सी रहती है | सचमुच ----------
    अक्सर मां/पिता हो जाती है/पिता के जाने के बाद।//////
    मन भिगोती रचना के लिए आभार और शुभकामनाएं|

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  13. अब बचपन की यादें उन्हें

    पहना करती हैं।
    गजब का सृजन, जैसे मेरे ही भाव हो, काश माँ को कभी बुढ़ापा न आता तो उनकी गोद में लेटने से पहले ये विचार न आता कि उनका अशक्त काया हमारे बोझ से कुछ और न कुम्हला जाते।
    आँखे नमः कर दी आपने।
    बैजोड़ रचना।

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  14. कुम्हला जाये,
    नम पढ़ें कृपया।
    सादर।

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