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पुरवाई

Sunday, June 13, 2021

एक सख्त सजा चाहता हूँ






काश कि
बहता रक्त
तुम्हारे भी शरीर से।
काश की 
टीस में कराहते तुम भी।
काश कि
तुम्हारे उखड़ने
और 
उजड़ने पर
तुम भी
उठा सकते आवाज़।
काश कि 
तुम भी दे सकते 
कोई तहरीर।
काश कि
होती सुनवाई तुम्हारी भी।
काश कि
तुम भी 
दिलवा पाते सजा
तुम पर 
हुए
कातिलाना हमले के
आरोपियों को।
काश कि
तुम भी बदले में 
मांग सकते
मुआवजा
दस वृक्षों को 
लगाने का।
काश कि 
रोक देते तुम भी 
अपनी सेवाएं
अपनों की हत्याओं के विरोध में।
काश कि 
तुम सब
हवा
पानी
धूप
आग 
एक होकर 
कर सकते आवाज़ बुलंद।
काश कि 
हम 
मानव समझ सकते 
तुम्हारे दर्द को
और 
तुम्हें काटने से पहले
कुल्हाड़ी 
कर देते
जमींदोज...।
काश कि 
हम तुम्हारे साथ 
गढ़ते 
अपना समाज...।
मैं 
तुम्हारे कटे 
शरीर पर 
मौन नहीं
एक 
सख्त सजा चाहता हूँ
तुम मांगो या ना मांगो...।




 

12 comments:

  1. प्रकृति के अंधाधुंध दोहन के खिलाफ उपजा आक्रोश ही इस रचना में झलक रहा है, मानव यदि समय रहते सचेत नहीं हुआ तो उसका खामियाजा उसे ही भुगतना पड़ेगा, पर परमात्मा अब भी नित नया सृजन कर रहा है, मैंने भी कुछ पंक्तियाँ लिखीं,
    अभी आस बाक़ी है दिल में

    सुंदर, स्वच्छ और पावन हों
    जन-जन के उर-अंतर आँगन,
    खिलकर सहज फूले-फलेगा
    सुखप्रद होगा परित आवरण

    नदी सिकुड़ कर उथली हुई है
    प्लास्टिक और अन्य पदार्थ से
    पीने योग्य नहीं जल उसका
    बनी विनाशकारी बाढ़ से

    दूषित हुई वायु भी बहती
    ले गंध रसायन की भीतर
    किंतु कूजती कोयल फिर भी
    खिल उठता है सूरज नभ पर

    अभी आस बाक़ी है दिल में
    वह अनंत कभी नहीं थकता
    कृपा बहाए ही जाता है
    पल भर को भी नहीं ठिठकता

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    1. बहुत ही गहन और गहरी कविता है आपकी अनिता जी। अच्छा लिखा है आपने, बस निवेदन ये है कि इस दौर जितना अधिक से अधिक नेचर लिख सकें लिखियेगा। आभार आपका।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (15 -6-21) को "ख़ुद में ख़ुद को तलाशने की प्यास है"(चर्चा अंक 4096) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. बहुत आभारी हूं आपका कामिनी जी। मेरी रचना को सम्मान देने के लिए।

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  3. सच ! प्राकृती का दोहन एक दिन त्रासदी गरूर लाएगा ।
    सुंदर सृजन

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    1. बहुत आभारी हूं आपका

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  4. आज ऐसे ही आक्रोश की जरुरत जन-जन में है

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    Replies
    1. जी बहुत बहुत आभारी हूं आपका गगन शर्मा जी...

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  5. बहुत शानदार सार्थक सृजन जो पर्यावरण हिताय मन से रचा गया है ।
    साधुवाद ।
    बहुत पहले कुछ लिखा था, आपकी शानदार रचना को समर्पित करती हूं।

    वृक्ष का संज्ञान

    माँ को काट दोगे!
    माना जन्म दाता नही हूँ
    पर पाला तुम्हें प्यार से
    ठंडी छाँव दी, प्राण वायु दी,
    फल दिये,
    पँछियों को बसेरा दिया,
    कलरव उनका सुन खुश होते सदा‌।
    ठंडी बयार का झोंका
    जो मूझसे लिपट कर आता
    अंदर तक एक शीतलता भरता
    तेरे पास के सभी प्रदुषण को
    निज में शोषित करता
    हाँ काट दो बुड्ढा भी हो गया हूँ।
    रुको!! क्यों काट रहे बताओगे?
    लकडी चहिये!!!
    हाँ तुम्हें भी पेट भरना है।
    काटो पर एक शर्त है,
    एक काटने से पहले
    कम से कम दस लगाओगे।
    ऐसी जगह कि फिर किसी
    विकास की भेट न चढूँ मैं।
    समझ गये तो रखो कुल्हाड़ी,
    पहले वृक्षारोपण करो।
    जब वो कोमल सा विकसित होने लगे
    मुझे काटो मैं अंत अपना भी
    तुम पर बलिदान करुंगा‌ ।
    तुम्हारे और तुम्हारे नन्हों की
    आजीविका बनूंगा।
    और तुम मेरे नन्हों को सँभालना
    कल वो तुम्हारे वंशजों को जीवन देगें।
    आज तुम गर नई पौध लगाओगे
    कल तुम्हारे वंशज
    फल ही नही जीवन भी पायेंगे।

    कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

    एक पेड काटने वालों पहले दस पेड़ लगाओ फिर हाथ में आरी उठाओ।।

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  6. बहुत आभार आपका कुसुम जी। आपने वाकई बहुत ही गहरी और गहन रचना लिखी है। ऐसी संवेदनशीलता ही इस दौर के लिए बेहद जरुरी है....। मैं आपको अच्छे और गहरे लेखन के लिए बधाई देना चाहता हूं।

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  7. प्रकृति की पीड़ा को प्रकृति-प्रेमी ही समझ सकते हैं संदीप जी। समस्या बहु-आयामी है लेकिन इस समस्या (तथा अन्य ऐसी ही गंभीर समस्याओं) का मूल यही है कि हम बात करते हैं और बिसरा देते हैं। ठोस कदम उठाने की इच्छा-शक्ति ही मानो विलुप्त है। बहरहाल, आपकी रचना (तथा टिप्पणियों में प्रस्तुत अन्य रचनाएं भी) साधुवाद की पात्र हैं।

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  8. बहुत आभारी हूं आपका आदरणीय जितेंद्र जी। हकीकत तो यह है कि अब ये किसी एक की जिम्मेदारी नहीं है ये सभी का कर्तव्य है। हमें बहुत गहन होकर सोचना होगा क्योंकि प्रकृति अब और अधिक समय नहीं देगी। आभार आपका

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