सुबह
दूर कुछ
थके पैरों
का एक कारवां
ठहरा है।
देख रहा हूँ
पैरों पर सूजन से
टूट गईं हैं
बच्चों की चप्पलें।
चलती हुईं
कुछ माएं
ढांक रही हैं
बच्चों के तपते
शरीर
अपने आंचल से।
पर पिता
अपनी
बिवाइयों में
रेत भर रहा है
समय की।
भूख से मचलते
बच्चे
के मुंह में
उड़ेली जा रही हैं
गर्म बूंदें
जो प्लास्टिक
की बोतल
दबा रखी है
बूढ़ी अम्मा ने
परिवार का पानी
बचाने की खातिर।
दोपहर
धूप सिर पर है
छांव फटे लत्ते सी
बिखरी है
भीड़ उसी में
समा गई है।
खमोश चेहरे
कई सुबह से
चल रहे हैं
अभी और चलना है
एक सदी
या
उससे कुछ अधिक।
सुबह
के सपने दोपहर में
देख रहे हैं।
माताएं
सुला रहीं हैं बच्चों को
कैसे कहूँ
दोपहर के बाद
सांझ और फिर
स्याह रात भी आती है..।
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आर्ट..श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी
आभार आपका यशोदा जी...। मेरी रचना को शामिल करने के लिए साधुवाद।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक रचना।
ReplyDeleteबहुत आभार आदरणीय शास्त्री जी...।
Deleteगरीबी का सजीव चित्रण । मार्मिक रचना ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका संगीता जी।
Deleteमार्मिक रचना हृदय झकझोर गई।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका अनुपमा जी।
Deleteन जाने यह सब दुख दर्द कब दूर होंगे।
ReplyDeleteसच कह रही हैं आप....आभार आपका वंदना जी।
Deleteमार्मिक....!
ReplyDeleteआभार आपका आदरणीय शर्मा जी।
Deleteसच,गरीबी कोटि आपदा है,मार्मिक और दर्द भरी दास्तां ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
Delete"छांव फटे लत्ते सी
ReplyDeleteबिखरी है" - जैसी अनूठी बिम्बों से सजे लाचारगी और बेचारगी की पीड़ा का साहित्यिक शब्द-चित्रण .. शायद ...
जी बहुत आभार आपका सुबोध जी।
Deleteबेहद मार्मिक रचना
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका सुजाता जी।
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