तुम्हारा साथ
पौधों के नेह जैसा ही है
गहरे से अंकुरण
गहरे से अपनेपन
और
गहरे से भरोसे की चाह
और
उस पर
हरीतिमा बिखेरता हुआ।
हम
और तुम
साक्षी हैं
धरा पर बीज के
बीज पर अंकुरण के
अंकुरण पर पौधा हो जाने के कठिन संघर्ष के
पौधे के वृक्ष बनने के कठिन तप के
उस पर गिरी बूंदों के
ठंड में ठिठरुती उसकी पत्तियों की आह के
गर्मी में झुलसते
उसके सख्त बदन के पत्थर हो जाने के
और
उस वृक्ष पर
घौंसले बनाकर बसने वाले
चुबबुले परिंदों के
उनकी उम्मीदों के
उस छांव में
सुस्ताने वाले
राहगीरों के
उनके थके पैरों की बिवाई के
और
छांव पाकर आई
गहरी नींद के।
हम साक्षी नहीं होना चाहते
उस वृक्ष के कटने के
उन घौंसलों के उजड़ने के
उन परिंदों के हमेशा के लिए लौट जाने के
छांव को धूप के निगल जाने के
फटी बिवाई से रिसते रक्त के
हम साक्षी नहीं होना चाहते
बंजर धरा के
प्यासे कंठों के
सूखते जलाशयों के
बारी-बारी मरते पक्षियों के
पानी पर लड़ते इंसानों के
और
हम साक्षी नहीं होना चाहते
ऐसी प्रकृति के
जिसमें
केवल
स्वार्थ के पथरीले जंगल हों
जहां
का कोई रास्ता
जीवन की ओर न जाता हो।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी...यशोदा जी...। आभारी हूँ आपका...।
ReplyDeleteबहुत गहन भाव...
ReplyDeleteसुविधाजीवी मनुष्य
अपनी सहूलियत के हिसाब से
प्रकृति के उपहारों का
उपभोग करता है किंतु
प्रकृति की पीड़ा में
तटस्थ हो जाता है।
अति सराहनीय सृजन सर।
प्रणाम
सादर
जी बहुत आभार आपका श्वेता जी...। यह दर्द है जो मुझे सोने नहीं देता...।
ReplyDeleteथोड़ी सी सहृदयता में हमारी कितनी परेशानियों का हल है| ह्रदय झकझोरती सी रचना | प्रभावशाली लेखन |
ReplyDeleteआभार आपका अनुपमा जी...
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत आभार सुशील जी...
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 05 अगस्त 2021 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत आभार रवीन्द्र जी...। साधुवाद
Deleteवाह संदीप जी | कितनी गहराई से प्रकृति और मूक प्राणियों के दर्द को महसूस किया गया है रचना में | मानव को अपने दर्द प्रिय हैं | सच कहा प्रिय श्वेता ने प्रकृति की पीड़ा में मानव का तटस्थ हो जाना ही प्रकृति के विनाश का द्योतक है |हम साक्षी हो जाएँ अबोले प्राणियों और मूक धरा की पीड़ा के तो धरती फिर से हरा भरा जंगल बन मुस्कुराने लगेगी |
ReplyDeleteहमेशा की तरह प्रेरक प्रतिक्रिया के लिए साधुवाद रेणु जी...। हमें प्रकृति से अपने रिश्ते पर मौलिक होना ही होगा...।
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteप्रायः आपकी रचनाओं में मेरे अपने ही हृदय की अनुगूंज होती है शर्मा जी। यह कविता भी अपवाद नहीं है। अभिनंदन आपका।
ReplyDeleteअहा...यह मेरे लिए गर्व की बात है जितेन्द्र जी...। मैं आपकी समीक्षा का कायल हूँ...। साधुवाद
Deleteआभार आपका अनीता जी...। साधुवाद
ReplyDeleteहम साक्षी नहीं होना चाहते
ReplyDeleteऐसी प्रकृति के
जिसमें
केवल
स्वार्थ के पथरीले जंगल हों
यथार्थपरक उत्कृष्ट रचना...🌹🙏🌹
बहुत बहुत आभार मैम।
Deleteहमें कभी भी इस तरह से साक्षी नहीं होना पड़े उसके लिए सजगतापूर्वक आज ही प्रयासरत होना पड़ेगा । अति सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteबहुत सटीक यथार्थ बयान किया है संदीप जी आपने।
ReplyDeleteसच कहा आपने हम कबूतर की तरह आँख बंद कर लेते हैं ऐसे जैसे आँख बंद खतरा टला।
सार्थक सृजन।
बहुत बहुत सुन्दर मार्मिक | शुभ कामनाएं |
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