बारुदों की गंध में
जब
रेत पर
खींचे जा रहे हैं
शव
और
चीरे जा रहे हैं
मानवीयता के
अनुबंध।
जब
सिसकियां
कैद हो जाएं
कंद्राओं में
और
बाहर शोर हो
बहशीयत का।
उधड़े हुए चेहरों पर
तलाशा जा रहा हो
हवस का सौंदर्य।
जब चीखें
पार न कर पाएं
सीमाएं।
जब दर्द के कोलाहल में
आंखों में
भर दी जाए रेत।
जब
आंधी के बीच
रेत के पदचिन्ह
की तरह ही हो
जीवन की उम्मीद।
जब आंखों में
सपनों की जगह
भर दी गई हो
नाउम्मीदगी की तपती रेत।
जब चीत्कार के बीच
केवल
लिखा जा सकता हो दर्द।
मैं
फूलों पर कविता
नहीं लिख सकता।
रेत में सना सच
और
एक मृत शरीर
एक जैसा ही होता है
दोनों में
जीवन की उम्मीद
सूख जाती है
गहरे तक
किसी
अगले
आदि मानव की तलाश के पहले तक।
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(अफगानिस्तान में मौजूदा हालात और वहां की बेटियों पर यह कविता...। )
सच!ऐसी परिस्थिति में जब पूरा विश्व मौन हो,तब तो अगले आदि 'मानव' की तलाश के अलावा चारा ही क्या है😐
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteसच!ऐसी परिस्थिति में जब पूरा विश्व मौन हो,तब तो अगले आदि 'मानव'की तलाश के अलावा चारा ही क्या है😐
ReplyDeletewaaah
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteजी बहुत आभार आपका... अनीता जी..। साधुवाद
ReplyDeleteसामयिक और लाजवाब।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteबारुदों की गंध में
ReplyDeleteजब
रेत पर
खींचे जा रहे हैं
शव
और
चीरे जा रहे हैं
मानवीयता के
अनुबंध।
मर्मस्पर्शी सृजन संदीप जी ।
जी बहुत आभार आपका
Deleteबिल्कुल ये समय नहीं है फूलों पर कविता लिखने का
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteबहुत ही भावपूर्ण पंक्तियां
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteसमसामयिक और सटीक काव्य।यथार्थ का चित्रण करती रचना ।
ReplyDeleteमैने
जी बहुत आभार आपका
Deleteरेत कि अपनी एक विशात होती है जहां बिछ जाए मृग मरीचिका बना लेती है - परिणाम पाण्डवों कि हार और रक्तरंजित कुरुक्षेत्र का मैदान |
ReplyDeleteरेत को हल्के में लेना नीतिगत नहीं होगा।
रचना बहुत सुन्दर एवं सटीक ।
जी बहुत आभार आपका
Deleteइस रचना में अफगानियों का दर्द साफ झलक रहा है ।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
जी बहुत आभार आपका
Deleteमार्मिक रचना, अफगानिस्तान में महिलाएं अब विरोध प्रदर्शन कर रही हैं, अपनी आजादी के लिए अब उन्हें खुद ही आगे आना होगा
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
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