तुम मांगो
फिर भी मैं तुम्हें
नदी नहीं दे सकता
अलबत्ता
एक बेहद जर्जर
उम्मीद दे सकता हूँ
जिसमें गहरा सूखा है
और
अब तक काफी भरोसा रिसकर
सुखा चुका है
नदी की अवधारणा।
नदी
हमारी जरूरत नहीं
हमारी
सनक और पागलपन
की भेंट चढ़ी है।
हमारी शून्यता
ही
हमारा अंत है।
नदी
सभी की है
और
हमेशा रहेगी या नहीं
यह पहेली अब सच है।
नदी
पहले विचारों में
प्रयासों में
चैतन्य कीजिए
उसकी
आचार संहिता है
समझिए
वरना शून्य तो बढ़ ही रहा है
क्रूर अट्टहास के साथ
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 17 नवंबर 2022 को 'वो ही कुर्सी,वो ही घर...' (चर्चा अंक 4614) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
आभार रवीन्द्र जी..।
हटाएंआभार पुरुषोत्तम जी..।
जवाब देंहटाएंकटु यथार्थ
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंसच नदी होना सरल नहीं हर किसी के लिए ........
जवाब देंहटाएंआभार आपका
जवाब देंहटाएंमैं तुम्हें
जवाब देंहटाएंनदी नहीं दे सकता
अलबत्ता
एक बेहद जर्जर
उम्मीद दे सकता हूँ
जिसमें गहरा सूखा है....
जब तक लोग इस बात को समझेंगे तब तक नदी सूखी ही नहीं, मर चुकी होगी शायद।
आभार आपका
हटाएंईश्वर ने सब दिया पर इंसान ही संभाल ना पाया |सूखती नदियाँ दुर्भाग्य है इंसान का |एक सूखी उम्मीद है बस देने के लिए | नदी तो केवल प्रकृति दे सकती है अपने संतुलन के साथ | असंतुलित और शापित प्रकृति क्या दे सकती है अब |
जवाब देंहटाएंआभारी हूं आपका
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