जब कोई मकान
घर होता है
तब वह एक सफर तय करता है।
ठीक वैसे ही
जैसे
कोई खरा कारोबारी
ढलती उम्र में
जीवन का सच समझता है
और
लौटता है, समाज की फटी एड़ियों को
धोता है।
जैसे कोई उम्रदराज़
सुस्ताता है नीम की छांव में एकांकी
ठहर जाना चाहता है
उसे घर कहता है।
जहां अनुभूति होती है
पुरखों की
जैसे कोई सुन रहा है
आपके दर्द
बिना कहे।
हां घर
होकर मकान और जीवन
पूर्णता का अहसास पाते हैं।
मकान भी
घर होने के बाद
मकान नहीं होना चाहता।
मकान
उस घर में ही रहना चाहता है।
घर का सफर
मकान के सफर से बेहद सरल है।
बस
हर ईंट को छूकर कहिए
आपमें हमारा जीवन है
हमारा समय
और
असंख्य सुखद यादें...।
जी संदीप जी , अनगिन मकान फिर से घर बन जाने की राह देख रहे पर किसी खरे कारोबारी के घर लौटने के लद गए शायद अब |अब नहीं आता वो समाज की फटी एडियों को साफ़ करने |सब अपने सुख-वैभव में इस कदर खो चुके हैं कि उनमें अपने बिसरे मकान को पुनः घर बनाने की कोई आतुरता नज़र नहीं आती | बस ये कवि मन की एक मिथ्या आस भर है कदाचित | पर इसी आशा पर संसार जीवित है | एक गहन संवेदनशील रचना के लिए हार्दिक बधाई आपको |
ReplyDelete*कृपया दिन लद गये पढें 🙏
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका रेणु जी।
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