गांव के घर
और
महानगर के मकानों के बीच
खो गया है आदमी।
गांव को
लील गई
महानगर की चकाचौंध
और
महानगर भीड़ के वजन से
बैठ गए
उकडूं।
हांफ रहे हैं महानगर
और
एकांकी से सदमे में हैं गांव।
गांवों के गोबर लिपे
ओटलों पर
बुजुर्ग
चिंतित हैं
जवान बेटों के समय से पहले
बुढ़या जाने पर।
तनकर चलने वाला पिता
झुकी कमर वाले पुत्र को देख
अचंभित है
क्या महानगर कोई
उम्र बढ़ाने की मशीन है?
थके बेटे को खाट पर बैठाए
पिता देते हैं
कांपते हाथों पानी
और
खरखरी वाली आवाज़ में सीख
गांव लौट आओ
तुम बहुत थक गए हो।
क्या गाँव लौट पायेगा बेटा
ReplyDeleteशहर चुम्बक है
मार्मिक रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका...।
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका...।
Deleteआदरणीय सर,
ReplyDeleteअत्यंत भावपूर्ण और मर्मान्तक रचना। सच ही महानगरों को चकाचौंध ने गांव के सुख शांति से भरे जीवन को लील दिया है। गांव से शहर की ओर भाग रहे युवा और गांवों का निरन्तर शहरीकरण करने वाले सत्ताधारी यह नहीं अमजद पा रहे कि किस तरह बहकावे में आ कर वे अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का खिलवाड़ कर रहे हैं। बहुत ही सुंदर रचना के लिए आभार व आपको सादर प्रणाम।
बहुत बहुत आभार आपका..।
Deleteशहरी हवा उड़ा ले गयी गांव को शहर में
चिंतनशील रचना
,,
बहुत बहुत आभार आपका..।
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