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पुरवाई

Thursday, March 4, 2021

उम्रदराज़ बचपन

 



मैंने

एक पेड़ को

उम्रदराज़ मौसम में

खिलखिलाते देखा।

अपने

पुराने

बदनण्पर

नई

पत्तियों वाली पोशाक में

बचपन

सा 

झूम रहा था।

गिरे हुए पत्तों के बीच

पेड़

सहमा सा नीचे भी देखता

और 

पत्तियों के गिरने पर

रुआंसा हो जाता।

नई कोपलें

टकटकी लगाए 

देख रही थीं

पेड़ को

कभी

सूखे पत्तों के

करारे और जर्जर

जिस्मों को।

पेड़ के चेहरे पर

दो सदी

के 

भाव हैं

उम्रदराज़ बचपन

और 

सदाबहार सच।

दोनों के 

एक

मायने हैं

जैसे

उम्र की

कोरों पर

फटी

कोई पोशाक होती है।

10 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०५-०३-२०२१) को 'निसर्ग महा दानी'(चर्चा अंक- ३९९७) पर भी होगी।

    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

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    1. जी बहुत आभार आपका...।

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  2. बहुत सुन्दर भाव . सच है उम्रदराज़ होने पर बचपन में ही जीना चाहिए .

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  3. बहुत ही सुंदर सृजन ,एक उम्र के बाद बच्चें हो ही जाते है सभी ,मेरा मानना तो ये है कि -हम हमेशा ही बच्चें ही होते है बस जाहिर नहीं होने देते।
    सादर नमन आपको

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    1. सच कह रही हैं कामिनी जी...। आभार आपका...

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  4. बेहतरीन रचना।

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  5. जी बहुत आभार आपका...।

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  6. सुंदर सृजन।
    हृदय तक उतरते उद्गार।

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