चीत्कार
और
रुदन में
एक अनुबंध होता है।
रुदन
जब
मौन हो जाए
वो
बहने लगे
जख्मों
के अधपके हिस्सों से।
दर्द असहनीय हो जाए
तब
वो
चीत्कार
हो जाया करता है।
इन दिनों
चीत्कार
गूंज रहा है
कहीं
कोई शोर है
कहीं
मन अंदर से
सुबकना चाहता है सच।
सच पर
बहस से पहले
अब
सच
को
क्रोध के जंगल में
बहस के
पत्थरों के बीच
उबलना होता है
बहस का
जंगल
कायदों
की ईंटों
को
सिराहने
रख
सोता है
सच के उबलने तक।
उबला सच
उछाल दिया जाता है
बेकायदा
शहरों की
बेतरतीब गलियों में
चीखती
आंखों की ओर।
सच
का उबाल
और
उबला सच
दोनों में
अंतर है।
समाज
नीतियों की प्रसव पीड़ा में
कराहते
शरीर का
खांसता हुआ
हलफनामा है...।
सच
किसी
दुकान पर
पान के बीड़े में
रखी गई
गुलेरी सा
परोसा जाता है।
लोग
अब नीम हो रहे हैं...।
सच परतों के नीचे दबा होता है अक़्सर... और सच को निकालने के लिए की गयी जद्दोजहद में झूठ की धूमिल परतें उसपर इस कदर चिपक जाती हैं कि सच सच की आभा लपेटने के बाद भी तेजहीन नज़र आता है।
ReplyDeleteबेहद सारगर्भित,गहन भाव लिए सुंदर अभिव्यक्ति सर।
सादर।
जी आभार आपका....। सच में सच का सच अब सच्चाई से देखा नहीं जा रहा...।
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteमनोभावों की गहन अभिव्यक्ति।
जी आभार आपका....।
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