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पुरवाई

Monday, April 19, 2021

सच को कांधे पर लटकाए


 कोरोना काल पर कविताएं...

4.

बहुत भूखा है बाज़ार

भय के कारोबार

का 

ग्राफ

चेहरों

पर 

नज़र आता है।

झूठ

फरेब

धोखा

मजबूरी नहीं होते

कोई

धधक रहा है

कहीं

सबकुछ टूटकर 

चकनाचूर है

केवल

यादें हैं

वे भी

आंसुओं में

धुंधली

ही हो गईं हैं।

बाजार

की भूख है

उसे अबकी

और 

ठहाके लगाना है

डर को

और बढ़ाना है।

मौत पर चीखते लोग

उसे 

अपने ग्राफ में

उछाल 

का

रास्ता नज़र आते हैं।

अखबार

अब सच देख पा रहे हैं

उन्हें

असल आंकड़ा

नज़र आ रहा है।

हर आदमी कल 

और

अगली सुबह से

भयाक्रांत है

केवल 

परजीवी

घूम रहे हैं

मदमस्त

भय और चीखते सच को

कांधे पर लटकाए

चीखों

पर 

अपनी 

हार पर

खिसियाहट बिखेरते।

सच

अब 

जेब में मरोड़कर

नहीं रखा जा सकेगा।

अब 

धैर्य की

तुरपाई उधड़ चुकी है।

अबकी समय चीखेगा

चीखते

शरीरों के बीच

सच

काफी रो लिया।

..........

फोटोग्राफ@विशाल गिन्नारे

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना।
    विचारों का अच्छा सम्प्रेषण किया है
    आपने इस रचना में।

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    Replies
    1. जी...आभार। नेह यूं ही बनाए रखियेगा।

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  2. बहुत खूब .... सोचने को विवश करते भाव ...

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  3. बहुत ही भावप्रवण कविता,मन झकझोर गई।

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  4. अब
    धैर्य की
    तुरपाई उधड़ चुकी है।
    अबकी समय चीखेगा
    चीखते
    शरीरों के बीच
    सच
    काफी रो लिया।
    धैर्य भी कब तक और कैसे...समय को तो अब चुप्पी तोड़नी ही होगी...अति किसी की भी कभी ठीक नहीं होती...
    बहुत सुन्दर सार्थक एवं विचारणीय सृजन...
    लाजवाब।

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