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पुरवाई

Sunday, April 18, 2021

मानवीयता रुआंसी है

 


कोरोना काल पर कविताएं...

3.

ये जीवन समर है

सब भाग रहे हैं

अंतहीन

दौड़

में

पैरों में

सपने

कुचले जा रहे हैं।

चेहरे और मानवीयता 

अब

रुआंसी है।

चेहरे पर चेहरे

वाला समाज

एक और मुखौटे को

ओढ़ चुका है। 

मन

की मन से 

दूरियों वाला समाज

असहज

और असहाय है।

कुछ चेहरे

मन 

कुछ

चेहरे

खुशी

कुछ चेहरे

अब तलाश रहे हैं

धन।

मन का बाजार

सूखा है

एक रेगिस्तान

है

धन की भूख

का भेड़िया

निगल रहा है

समाज को।

दो पैरों वाला इंसान

मदमस्त

घूम रहा है

अपने

बसाए जंगल में।

कुछ दूर

जंगल की सीमा पर

धन की गठरी

बांधे कुछ

बेबस मुसाफिर

तलाश रहे हैं

जीवन

अपने

सपने

और

समय जो कुचल दिया गया

लोलुपतावश।

9 comments:

  1. वर्तमान समय के हिसाब बहुत ही सटीक रचना। आज के हालात ऐसे ही है।

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    1. सच..। ये हालात ही इतिहास लिखेंगे...।

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  2. बहुत आभार आपका कामिनी जी...। अवश्य आपका ये अंक बहुत खूबसूरत और पठनीय होगा।

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  3. कोरोना काल में वाकई ऐसा ही घट रहा है लेकिन समय करवट लेगा जरूर

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  4. मार्मिक औऱ भावपूर्ण कविता
    वाकई इन दिनों मन बहुत दुखी है

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  5. सच अभी तो चँहु ओर निराशा का सम्राज्य है ।
    पर वक्त जरूर बदलेगा।
    हृदय स्पर्शी रचना।

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  6. मन का बाजार सचमुच सूना है . बहुत खूब

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  7. हृदयस्पर्शी रचना

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  8. मन बिल्कुल सूख गया है,सच कहा आपने, मार्मिक कविता।

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