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पुरवाई

Saturday, April 17, 2021

शरीर चल रहे हैं, आंखें सुर्ख हैं


 कोरोना काल में कविताएं...

2.


जीवन

बुन रहा है

आंसुओं का नया आसमान।

चेहरे 

पर 

चीखती लापरवाहियां

भुगोल होकर 

इतिहास 

हो रही हैं।

घूरती आंखों के बीच

सच

निःशब्द सा 

खिसिया रहा है। 

सूनी

डामर की तपती सड़कें

बेजान 

मानवीयता के 

अगले सिरे पर सुलगा रही है

क्रोध।

चीख

तेजी से मौन

ओढ़ रही है। 

आंखें घूर रही हैं

बेजुबान

सी

सवाल करना चाहती हैं

कौन

है 

जिसने बो दी है

इस दुनिया में

ये जहर वाली जिद।

कौन है 

जिसकी सनक ने

मानवीयता को कर दिया है

बेजुबान।

कौन है

जिसे

फर्क नहीं पड़ता 

आदमी के बेजान 

शरीर में तब्दील हो जाने पर।

शरीर 

चल रहे हैं

आंखें सुर्ख हैं

शिकायत 

और शोर 

अब मौन में तब्दील है

सब 

तलाश रहे हैं

एक जीवन

एक सच

और

एक खामोशी।

17 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना रविवार १८ अप्रैल २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. नमस्कार श्वेता जी...आभार

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  2. बड़ा भयावह है ये काल .... सटीक चित्रण कर दिया है आपने .

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    1. आभार संगीता जी...भयावह काल है, हम अपनों को समझाएं और गलतियां न करने के लिए कहें...।

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  3. मानव में मानवता का आभाव, विवकहीनता और लापरवाहियों ने इस काल को आमंत्रण दिया है।अब परमात्मा भी कुछ नहीं क्र सकता। गलती की है सजा तो भुगतनी ही। सटीक चित्रण संदीप जी

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    1. सच कही रही हैं आप कामिनी जी...भयावह काल है, अब बचाव ही सुरक्षा है। आप और अपनों का ख्याल रखियेगा। आभार

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  4. Replies
    1. जी अवश्य अमित जी आभारी हूं आपका।

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  5. सच में..आंसुओं का नया आसमान ही सजा डालें हम सभी। भयावह स्थिति पर सटीक रचना।
    बधाई।

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    1. जी बहुत आभार पम्मी जी...।

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  6. जी रवीन्द्र जी बहुत आभार..।

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  7. मर्मस्पर्शी रचना

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  8. बहुत ही सुंदर मन को छूते भाव।
    सराहनीय सृजन।
    सादर

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