कुछ
घर
केवल
अधूरे रह जाने के लिए
बनते हैं।
जीवन
की सिसकी
और
अट्टहास
उन दीवारों को
नहीं
मिलते
उन्हें
केवल
एकांत मिलता है।
मौन
के
चीखते
शब्द उन्हें
जीवित रखते हैं।
मकान से घर
के
सफर के
अधबीच
बो दिए जाते हैं
दालान।
चीखते मकानों
की तरह
चीखते
घर
अच्छे नहीं लगते।
कुछ
घर
अधूरे
भी पूरे
से लगते हैं।
कच्ची
दीवारें
मन के फर्श के साथ
अंगुली थामें
पूरा घर घूम आती हैं।
कच्ची और अधूरी छत
सवाल
नहीं पूछती
हर
बार
बातों ही बातों में
परिवार के बीच
आ बैठती है
ठहाकों की महफिल में।
आंगन
भीगने की शिकायत
नहीं करता
कैसा
पागल है
हंसता ही रहता है।
घर
अधूरे
और
पूरे
ठहाकों
से बनते हैं।
वे
बनकर भी अधूरे रह
जाते हैं
बिना
बतियाये।
वे अधूरे होकर भी
पूरे हो जाते हैं
मुस्कुराते
हुए।
घर
खुद का नहीं
आपका
प्रतिबिंब होता है
जिसमें
आपकी शक्ल, हालात और
व्यवहार
हर पल
नज़र आते हैं...।
जी हाँ। यही सच है घर का भी, जीवन का भी।
ReplyDeleteआभार जितेंद्र जी...।
ReplyDeleteबहुत जीवंत!
ReplyDeleteजी आभार आपका विश्वमोहन जी।
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