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पुरवाई

Wednesday, September 15, 2021

किताब के पन्नों का जंगल


 

दूर

कहीं कोई

जीवन

अकेला खड़ा है।

जंगल

अब विचारों में

समाकर

किताब के पन्नों

पर

गहरे चटख रंगों

में

नज़र आता है।

अब

जंगल और

किताब के पन्नों

के बीच

आदमियों की भीड़ है।

भीड़ किताबों

को सिर पर उठाए

विरासत की ओर

कूच

कर रही है।

किताब के पन्नों का

जंगल

तप रहा है

उसके रंग

पसीजकर

आदमी के चेहरे पर

उकेर रहे हैं

कटी और गूंगी सभ्यता।

जंगल और किताबी जंगल

के बीच

कहीं कोई आदमी

है

जिसका चेहरा कुल्हाड़ी

की जिद्दी मूठ

हो गया है।

कुल्हाड़ी

जंगल

और

आदमी के बीच

अब कहीं कोई

भरोसा

सूखकर किताब के

पन्नों वाले जंगल के

आखिरी पृष्ठ

की निचली

पंक्तियों की बस्ती में

सूखे की अंतहीन

बाढ़ में समा गया है।

अब जंगल

घूमने की नहीं

पढ़ने और पन्नों में

देखने

की एक वस्तु है...।

20 comments:

  1. बहुत आभार आपका मीना जी...।

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  2. जंगल और शहर के बीच की दूरी घटती जा रही है, इसलिए तेंदुएँ नज़र आने लगे हैं शहरों में आजकल, प्रभावशाली लेखन !

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ सितंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  4. जी बहुत आभार श्वेता जी...।

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  5. –सवाल है जिम्मेदार कौन
    –जबाब में हम आप मौन

    सुन्दर लेखन

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    1. जी बहुत आभार विभा रानी श्रीवास्तव जी...।

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  6. जिस रफ्तार से जंगल खत्म हो रहे हैं तो पन्नों पर ही जंगल बचेंगे । सार्थक लेखन।

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    1. जी बहुत आभार संगीता जी

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  7. सादर नमस्कार सर।
    मन पसीज गया पढ़कर कल्पना मात्र से ही....
    बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन।
    सादर

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  8. जी बहुत बहुत आभार आपका अनीता जी।

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  9. अत्यन्त चिंतनीय विषय । स्तब्ध करती हुई ...

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका

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  10. आपका वैचारिकी मंथन मनन योग्य है सर।
    प्रणाम
    सादर।

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका

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  11. जंगल अब विचारों में समाकर किताब के पन्नों पर
    गहरे चटख रंगों में नज़र आता है।अब जंगल और
    किताब के पन्नों के बीच आदमियों की भीड़ है।
    जंगल को मिटाकर अब आदमी किताबों में जंगल लिख रहा है
    बहुत ही चिंतनपरक लाजवाब सृजन।

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    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका सुधा जी।

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  12. महत्वपूर्ण सवाल उठाती बहुत ही प्रभावशाली रचना!

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    1. बहुत बहुत आभारी हूं आपका मनीषा जी।

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  13. ऐसा नहीं होना चाहिए था पर हो गया है (कम-से-कम भारत में)। क्यों हुआ, यह विशद अध्ययन एवं सत्यनिष्ठ विमर्श का विषय है। काश इस स्थिति को उलटाया जा सके! काश मनुष्यों का बहुमत तथा अधिकारयुक्त पदों पर बैठकर महत्वपूर्ण निर्णय लेने वाले लोग इसे समझकर (अब भी) इस दिशा में उचित कार्य करें एवं अनुचित कार्यों से बचें!

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