आदमियों की भीड़ में
आदमी।
आदमी के चेहरे पर
आदमी
और आदमी के
जम़ीर पर पैर लटकाकर बैठा आदमी।
पैरों से आदमी को गिराता आदमी
पैरों को पकड़कर गिड़गिड़ाता आदमी।
दंभी आदमी
व्यवस्था होता आदमी।
आदमी
पर सवार आदमी
और आदमी से लड़ता आदमी।
आदमी से आदमी होने की जिद
में रोज
दरकता और सुलझता आदमी।
खुद में दौड़ता
खुद से पराजित होता
खुद से जीतने के लिए
सीमाएं बनाता
और तोड़ता आदमी।
भीड़ में आदमी
और
अकेले में आदमी।
अकेले में भीड़ जैसा आदमी
और भीड़ में बहुत अकेला आदमी।
चीखता आदमी
रोता आदमी
जिद्दी आदमी
घमंडी आदमी
दूसरों के दुखों पर
ठहाके लगाता आदमी।
भूखा आदमी
लालची आदमी
ढोंगी आदमी
गुस्सैल आदमी
जीता आदमी
जीने का ढोंग करता आदमी।
अपने से टकराता आदमी
आदमी की जात में
कई तरह का आदमी।
चेहरे पर आदमी
बाजू में आदमी
सिर पर आदमी
पैरों में आदमी
सत्ता में आदमी
और
आदमी में सत्ता जैसा आदमी।
महफिल में सजा संवरा आदमी
आदमी में
उदास सी महफिलें होता आदमी।
अकेले में रोता आदमी
अकेले होने को
जीता आदमी।
घर को बनाता आदमी
घर होता आदमी
आदमी में टूटते घरों में
ईंट सा विभाजित आदमी।
टूटी खिड़की सा आदमी
झरोखों सा आदमी
जंगल से निकला आदमी
जंगल होता आदमी
सुलगता आदमी
रेतीला आदमी।
सोचता हूं
और कितने आदमी हैं
यह भीड़ हम नहीं देख पाते
हम केवल शरीर को जीते हैं।
सोचता हूं
आदमी
खारा सा समुद्र हो गया है
जो
अपने खारेपन का नेह
बिखेरकर
जमीन को पानी तो दे रहा है
लेकिन
नमक भी
रिस रहा है
उसके गर्भ में।
सोचता हूं
कुछ आदमी
फूल हैं
कुछ पत्ती
कुछ अंकुरण
और बहुत थोड़े से आदमी
उम्मीद भी हैं
लेकिन
डरता हूं बढ़ती हुई भीड़ में
एक दिन
महत्वकांक्षा का जंगल
उन्हें खूंदकर
बना न दे
आदमी की
कोई
सूखी और बंजर जमीन।
जहां
नहीं होगा
कोई आदमी
होगी केवल
रेत
पानी
और बहुत सारा खारापन।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१८-०९-२०२१) को
'ईश्वर के प्रांगण में '(चर्चा अंक-४१९१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत आभार आपका अनीता जी...। साधुवाद..
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteआभार आपका आदरणीय जोशी जी।
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन रचना आदरणीय सर!
ReplyDeleteआभार आपका मनीषा जी।
Deleteबहुत खूब!
ReplyDeleteआदमी पर हर उपमाएं सटीक बैठती है।
गहन चिंतन के साथ आदमी का अवलोकन करवाती रचना,और आदमी की बदलती फितरत पर चिंता व्यक्त करती सुंदर रचना।
बहुत बहुत आभारी हूं आपका।
Deleteबहुत कुछ सोचने पर विवश करती रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूं आपका अनीता जी।
Deleteखुद से पराजित होता
ReplyDeleteखुद से जीतने के लिए
सीमाएं बनाता
और तोड़ता आदमी।
भीड़ में आदमी
और
अकेले में आदमी।
एकदम सटीक ...
डरता हूं बढ़ती हुई भीड़ में
एक दिन
महत्वकांक्षा का जंगल
उन्हें खूंदकर
बना न दे
आदमी की
कोई
सूखी और बंजर जमीन।
ये डर भी लाजमी है आखिर आदमी कुछ भी कर सकता है कुछ भी कर रहा है।
बहुत ही विचारणीय एवं चिंतनपरक सृजन।
बहुत बहुत आभारी हूं आपका सुधा जी।
Deleteअच्छी अभिव्यक्ति है जो यथार्थ का आभास देती है। और जिस बात का आपको डर है, वह तो शायद हो भी चुकी है।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूं आपका जितेंद्र जी।
Delete