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पुरवाई

रविवार, 10 अक्टूबर 2021

एक सदी का सूखापन

 


तुम्हें कुछ फूल देना चाहता हूँ

जानता हूँ

अगली सदी

बिना फूलों की होगी।

इन्हें रख लेना

डायरी के 

पन्नों के बीच

उम्र के पीलेपन

के साथ 

संभव है

इन्हें भी 

जीना पड़े 

एक सदी का सूखापन।

सहेज लेना इन्हें

कम से कम 

पीढ़ियां 

देख तो सकेंगी 

इन्हें छूकर

और 

शायद इसी तरह बच सके

इनकी खुशबू

हमारा 

फूलों से प्रेम 

और 

फूलों 

के शरीर...।

जानता हूँ

किसी को फर्क नहीं पड़ता 

कि 

क्या कुछ खो चुके हैं हम।

फर्क पड़ेगा

जब हम

एक सूखे संसार में

रेतीले जिस्म

और 

सूखी आत्मा के बीच

हम 

नहीं खोज पाएंगे

कोई पक्षी

कोई फूल

कोई जीवन

और 

कोई उम्मीद...।


10 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (11 -10-2021 ) को 'धान्य से भरपूर, खेतों में झुकी हैं डालियाँ' (चर्चा अंक 4211) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय रवींद्र जी....।

    जवाब देंहटाएं
  3. किसी को फर्क नहीं पड़ता

    कि

    क्या कुछ खो चुके हैं हम।
    सबसे ज्यादा दुख और दुर्भाग्यपूर्ण तो यही है इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!
    बेहतरीन व सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय सर

    जवाब देंहटाएं
  4. हम

    नहीं खोज पाएंगे

    कोई पक्षी

    कोई फूल

    कोई जीवन

    और

    कोई उम्मीद...।..सच्चाई से रूबरू कराती सार्थक रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  5. अगर वे नहीं बचेंगे तो उनसे पहले तो हम ही नहीं बचेंगे, कौन खोजेगा और किसको

    जवाब देंहटाएं
  6. अद्भुत सत्य, एक सिहरन उत्पन्न कर गई आपकी रचना ।
    सब समझने लगे हैं प्रकृति का रूप कितना भयावह होगा पर .…कोई भी कहां समझा है ।
    अभिनव सृजन।

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