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पुरवाई

Saturday, October 9, 2021

सच सहमा सा आ बैठता है

 


सच 

उस 

भयभीत बालक की तरह है

जिसे

अकेला छोड़ दिया जाता है

उग्र भीड़ के बीच

यह जानते हुए भी कि

वह लौटेगा नहीं।

सच

उस गुबार का नाम है

जिसे

आम आदमी कंठ में 

रखता है 

विष की तरह

और घूंट-घूंट पीता है 

अपनी जीत को हार में 

बदलता देख।

सच 

उस बेबसी का नाम है

जो भूखे बच्चे के 

भयभीत चेहरे से 

टपकता है लार बनकर।

सच 

उस चीख के समान है

जिसके बाद 

ठहर जाती है जिंदगी

किसी 

अधबीच चौराहे पर

लपलपाती नजरों के बीच। 

सच 

उस किताब की तरह है

जिसके पन्ने पीले हो गए हैं

इस इंतजार में 

कि उसके शरीर से 

धूल हटे और खोला जाए सच।

सच

उस ग्रंथालय की तरह भी है 

जो धधकता रहे 

किताबों के सच के बीच

झूठे समाज में।

सच 

उस जीत की तरह है

जिसे पाकर

अक्सर 

फटेहाल हो जाता है

एक शरीर

फिर भी मुस्कुराता है

अपने अधनंगे शरीर को देखकर।

सच 

उस हार की तरह है

जिसमें सूखे शरीर की भयाक्रांत चीख होती है।

सच

सहमा सा आ बैठता है

किसी मासूम के चेहरे की रुंआसी में।

सच 

किसी

वृद्ध की आंखों में

लंबी लड़ाई जीतने के बाद

उतना ही धुंधला जाता है 

जितनी उसकी उम्र। 

सच 

कैसे कहूं

बहुत दुखता मन

और

सच कैसे सहूं

अपने ही बोझ से

भिंची जा रही है

जिव्हा मेरी। 

कान में बहरापन ओढ़कर

जी रहे समाज का

हिस्सा होकर

मैं 

अब धीरे-धीरे

भीड़ ही हो हूं।

सच

केवल 

मन के शोर का 

एक चेहरा है

जो

फटे हुए

मन के जिस्म के जर्जर हो जाने तक 

उसे

ढांकता रहता है

भयभीत बालक की तरह

जिसे

अकेला छोड़ दिया जाता है

उग्र भीड़ के बीच। 



PHOTOGRAPH@SANDEEPKUMARSHARMA

2 comments:

  1. बेहतरीन रचना

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    Replies
    1. जी बहुत बहुत आभार आपका सरिता जी।

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