आओ
नदी के किनारों तक
टहल आते हैं
अरसा हो गया
सुने हुए
नदी और किनारों के बीच
बातचीत को।
आओ पूछ आते हैं
किनारों से नदी की तासीर
और
नदी से
किनारों का रिश्ता।
आओ देख आते हैं
नदी में
बहते सख्त
पत्थरों से उभरे जख्मों को
जिन्हें नदी
कड़वाहट के नमक से बचाती रहती है
और
अक्सर छिपाती रहती है।
आओ छूकर देख आएं
नदी के पानी को
उसकी काया को
उसकी तासीर को
और
जांच लें
हम
पूरी तरह बे-अहसास तो नहीं रहे।
आओ बुन आते हैं
नदी और किनारों के बीच
गहरी होती दरारों को
जहां
टूटन से टूट सकता है
रिश्ता
और
भरोसा।
आओ नदी तक हो आएं
परख लें
नदी, कल कल कर पछियों से बात करती है
या
केवल
मौन बहती है
पत्तों और कटे वृक्षों के सूखे जिस्म लेकर
क्योंकि
बात करने और मौन हो जाने में
उसकी कसक होती है
जो चीरती है उसे गहरे तक
और मौन होती नदी
कभी भी सभ्यता को गढ़ने की क्षमता नहीं रखती
क्यांकि नदी का मौन
आदमियत की मृत्यु है..
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 30 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी आभार आपका यशोदा जी। मेरी रचना को नेह प्रदान करने के लिए।
Deleteनदी का मौन रुदन उसकी संतानों को कैसे न रुला जायेगा, मार्मिक रचना
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका अनीता जी।
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार
(30-11-21) को नदी का मौन, आदमियत की मृत्यु है" ( चर्चा अंक4264)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी। मेरी रचना को सम्मान देने के लिए साधुवाद।
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत बहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDeleteकोई पूछे नदी से कैसी है वो?
हृदयस्पर्शी सृजन।
सादर
बहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteवाह!भावपूर्ण ,बेहतरीन सृजन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteनदी किनारोंसे दूर नहीं हो सकती लेकिन फिर भी कभी वेगवती हो कर उन किनारों को तोड़ ज़रूर सकती है । नदी का मौन सच ही आदमियत की मौत ही है तब किनारे बेबस हो कर नदी की खामोशी देखते हैं ।
ReplyDeleteझकझोर देने वाली रचना ।
बहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय शास्त्री जी।
ReplyDeleteसंवेदशीलता से परिपूर्ण ...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteसुंदर सराहनीय अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteसही कहा अहि ... हमेशा से संस्कृति नदियों के किनारे ही जीवित रही है ... सभ्यता भी ऐसे ही जीवित रही है ... ये क्रम आने वाले समय में भी ऐसा हो रहने वाला है ... गहरी, सार्थक रचना ...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteशुभकामनाएं..
ReplyDeleteसादर नमन
बहुत ही खूबसूरत सी रचना
ReplyDeleteनव वर्ष की शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteबात करने और मौन हो जाने में
ReplyDeleteउसकी कसक होती है
जो चीरती है उसे गहरे तक
और मौन होती नदी
कभी भी सभ्यता को गढ़ने की क्षमता नहीं रखती
क्यांकि नदी का मौन
आदमियत की मृत्यु है..
गहन अर्थ समेटे बहुत ही सारगर्भित लाजवाब सृजन
वाह!!!
शीर्षक के अनुरूप सम्पूर्ण कविता बहुत मर्मस्पर्शी है। हार्दिक आभार।
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