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पुरवाई

Sunday, September 18, 2022

ताकि तुम्हें दे सकूं समय और आज

 हर बार तुम्हारे टूटने से

मेरे अंदर भी

गहरी होती है कोई पुरानी ददार।

तुम्हारे दर्द का हर कतरा

उन दरारों को छूकर 

गुजरता है

और 

चीख उठता हूं मैं भी

अतीत को झकझोकर 

पूछता हूं सवाल

मैं कौन हूं

और

क्या हूं

और कितना हूं...?

मैं जानता हूं तुम्हारे दर्द पर 

सहलाने के बहाने

कुरेदा जाता है समय

मैं जानता हूं

तुम्हें चेहरे से हर बार

मैं तिल तिल घटता पा रहा हूं

मैं 

अपनी हथेलियों पर रेखाओं के बीच

कोई रास्ता तलाशता हूं

ताकि तुम्हें दे सकूं

समय

जवाब

और हमारा बहुत सा आज।

मैं जानता हूं

तुम हर बार टूट रही हो

झर रही हो

क्योंकि तुम मुझ सी हो

और मेरे अंदर बहुत गहरे

बहती हो सदानीरा सी

अपने किनारों पर होने वाली

हलचल को अनदेखा करती हुई।

मैं 

तुम्हें सदनीरा ही चाहता हूं

मैं चाहता हूं

तुम और मैं यूं ही साथ प्रवाहित रहें

विचारों में

जीवन में

इस 

महासमर के हरेक सख्त सवाल पर। 

मैं जानता हूं

तुम सूख सकती थीं

तुम सुखा सकती थीं

तुम रसातल में भी समा सकती थीं

लेकिन 

तुमने मेरे लिए 

खामोशी को आत्मसात कर

सदानीरा होना स्वीकार किया।

मन में कहीं

हर बार बहुत सा सूखता है

बिखरता है 

लेकिन

हर बार तुम सदानीरा बन

उसे अंकुरित कर जाती ह

समय के सांचे में ढाल...।

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