नदी
अंदर से जानी नहीं गई
केवल
सतही तौर पर देखी गई।
उसकी भीतरी हलचल
का कोई साझीदार नहीं है
केवल
जलचरों के।
नदी बहुत भीतर
कुछ निर्मल है
और
बहुत सी बेबस भी।
वह
उसकी आत्मा का नीर
उन जलचरों के लिए है
जो नदी के दर्द पर
उसकी कराह में शामिल होते हैं।
सतही पानी नदी की विवशता है
सतही बातों के बीच
नदी बहुत बेबस है।
वह सिमट रही है
प्रवाहित होते हुए भी
अपने भीतर
जलचरों को समेटते हुए
उसका आत्म नीर
घटता जा रहा है
और घटते जा रहे हैं
जलचर।
हां नदी अंदर से नहीं पढ़ी गई
केवल
सतही विकारों और किनारों को लिखा गया
उसके हर दिन के रुदन को
जलचरों को घटते निर्मल नीर को
बदबूदार सतह को ढोने की विवशता को
कहा पढ़ा जा सका।
नदी गहरे कहीं-कहीं
सहती है
कालिख सा बदबूदार पानी
जिससे जल का निर्मल भाव
नदी की आत्मा
और
जलचर मर जाते हैं।
क्या पढ़ पाए हैं हम
नदी को
उसके दर्द को
उसकी इच्छा को
उसके सिमटते भविष्य पर
क्या महसूस कर पाए हैं
उसके मौन को ?
नदी कहां पढ़ी गई
वह तो
केवल
उलीची गई
खूंदी गई
विचारों की बदबूदार साजिशों में।
कभी पढ़ो
तो पाओगे
किनारों पर गहरे
नदी के रुदन का नमक मिलेगा
जो हर रोज बढ़ रहा है
और
बढ़ रही है
हमारी और नदी के बीच
रिश्तों में खाई।
दिल को जार जार करती हुई मार्मिक रचना, आदमी के विकास की क़ीमत प्रकृति को चुकानी पड़ रही है, कितना ह्रदयहीन है मानव
ReplyDeleteजी...बहुत बहुत आभार आपका अनिता जी। कौन समझेगा और कब समझेगा पता नहीं...एक रेस में सभी भाग रहे हैं।
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