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पुरवाई

Saturday, July 24, 2021

उनका जंगल...हमारा जंगल

तुम्हें जंगल चाहिए
मुझे भी।
तुम्हें
उसे रौंदकर 
बनाना है
चीत्कार करता
महत्वाकांक्षी नगर।
मुझे
केवल जंगल चाहिए
जिसमें
हमारे जंगल का प्रतिबिंब 
नजर न आए।
हमारा
जंगल तुम रख लो
जिसमें
केवल सूखा है
चीख हैं
और कुछ
अस्थियां
सूखी हुई
उन वन्य जीवों की 
जिनसे हम छीन चुके हैं
उनका जंगल...।
तुम 
जंगल 
को नहीं समझ सकते
क्योंकि
हम 
अमानवीय और हिंसक हैं।
छोड़ दीजिए
उनका जंगल
जिसमें
वन्य जीव
गढ़ते हैं
एक सभ्य जीवन...।

31 comments:

  1. छोड़ दीजिए
    उनका जंगल
    जिसमें
    वन्य जीव
    गढ़ते हैं
    एक सभ्य जीवन...।

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    1. आभार आपका कविता जी...।

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  2. काश , वन्य जीव कुछ कह पाते । आज तो सच ही जानवर मनुष्य से ज्यादा सभ्य नज़र आता है ।
    बेहतरीन

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    1. आभार आपका संगीता जी...

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  3. आपकी लिखी रचना सोमवार 26 जुलाई 2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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    1. बहुत बहुत आभार आपका संगीता जी...। मेरी रचना को मान देने के लिए...। साधुवाद

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  4. आभार आपका रवीन्द्र जी...।

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  5. छोड़ दीजिए उनका जंगल..जिसे ज़बरदस्ती अपना बनाने पर तुले हैं। बहुत सुन्दर और सही बात कही है आपने। बधाई आपको। सादर।

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    1. वीरेंद्र जी आभार आपका...।

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  6. छोड़ दीजिए
    उनका जंगल
    जिसमें
    वन्य जीव
    गढ़ते हैं
    एक सभ्य जीवन...।
    बहुत ही अच्छे विचारों और उद्देश्य से लिखी गई बहुत ही बेहतरीन रचना!

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    1. बहुत आभार मनीषा जी...।

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  7. जंगली कहलाने वाले भी
    अनुशासनबद्ध हैं
    पर सचमुच
    विचारणीय हैं
    हम मनुष्यों के
    नियम और आचरण
    अगर चाहिए
    पीढ़ियों के लिए
    संतुलित भविष्य।
    ----
    आपकी रचनाएँ
    जीवंत संवाद करती हैं।
    प्रणाम सर
    सादर।

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    1. बहुत आभार आपका श्वेता जी...।

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  8. छोड़ दीजिए
    उनका जंगल
    जिसमें
    वन्य जीव
    गढ़ते हैं
    एक सभ्य जीवन...।
    बहुत खूब..!!

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  9. छोड़ दीजिए उनका जंगल...
    मार्मिक अपील!

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  10. उद्वेलित करता सृजन ।

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    1. आभार आपका अमृता ती...।

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  11. बेहतरीन सृजन।
    सादर

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    1. आभार आपका अनीता जी..।।

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  12. वन्य जीवों का सभ्य जीवन
    वाह!!!
    बहुत सुन्दर विचारणीय सृजन।

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  13. बहुत बढिया संदीप जी | जीवों का सभ्य जीवन-- मानव के कथित सभ्य जीवन से हजारों गुना अच्छा होगा क्योंकि अनबोल प्राणियों में अभी भी जीवन का कायदा मौजूद है | संवेदनशील रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं|

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  14. क्या सच में विकार अमानवीय है? एक ढर्रे पर लिखी जाती कथा। यदि नगर इतने अमानवीय है तो वे बस्ते क्यूँ हैं ? यदि जंगल से इतना प्रेम है तो महानगर की ओर पलायन क्यूँ होता है? केवल भूख के लिए नहीं। सुविधा के लिए भी। चिकित्सा के लिए भी। एक ढप की कथा, अधूरी ही होती है। सिक्के के भी 2 पहलू होते हैं।

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    1. मेरा अपना चिंतन है... जरूरी नहीं यह सभी का हो...।

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    2. ऐसा लगता है कि ये टिप्पणीकार आपकी कविता के वास्तविक भाव को समझ ही नहीं सके शर्मा जी। आपने सही बात कही है। जंगल उन्हीं के हैं जो उनके वासी हैं, उन्हें सम्भालते हैं और अपने घर की तरह संरक्षित रखते हैं। निजी स्वार्थ के दासों को कोई अधिकार नहीं है उन पर अतिक्रमण करने और उनका अनुचित दोहन करते हुए उनके वास्तविक अधिकारियों (आदिवासियों, वनस्पतियों तथा वन्य प्राणियों) को उनसे वंचित करने का। स्वार्थी एवं लोभी तथाकथित सभ्य लोगों से कहीं अधिक सभ्य हैं वे।

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    3. अपनी अपनी समझ है और अपना अपना चिंतन...। आभार आपका जितेंद्र माथुर जी...।

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  15. बिल्कुल सटीक खाका खींचती,जंगल की संवेदना को व्यक्त करती खूबसूरत कविता।

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    1. आभार आपका जिज्ञासा जी...।

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