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पुरवाई

Saturday, September 23, 2023

नदी से रिश्ता

 


नदी किनारे नरम रेत पर

अब भी चस्पा है

बचपन

और

मेरी अबोध उम्र के निशान।

नदी भी तब

अबोध हो जाया करती थी

बार-बार

मेरे पैरों में पानी के मोटे-मोटे छींटे मार

लहरों में खिलखिलाती थी।

किनारा कच्चा था

लेकिन 

नदी से उसका रिश्ता 

मजबूत था

कभी भी नदी ने 

उस किनारे को पीछे नहीं धकेला

हर बार

उसे छूती हुई 

गुजर जाती।

उस किनारे कहीं 

नदी की रेत में 

एक घरोंदा बनाया था

जो आज तक 

है

मेरे मन, भाव, शब्दों और नदी के भरोसे में।

मेरे पदचिन्ह 

नदी के मुहाने तक चस्पा हैं

उसके बाद नदी है

नदी है

और 

मेरी आचार संहिता।


6 comments:

  1. Replies
    1. बहुत आभार आपका आदरणीय।

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  2. बहुत आभार आपका अनीता जी

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  3. काश नदी कहकर सुना पाती और दिखा पाती अपने सीने पर चस्पा अपने आत्मीय और स्नेही जनों के पद चिन्ह या खिलखिला पाती किसी के अबोध बचपन की मासूम शरारतों को याद करते हुए। पर उसका मौन उसके जीवन पर भारी पड़ गया।बहुत अनमोल होता है नदी और मानव के मौन प्रेम का संस्कार ।बहुत ही भावपूर्ण लिखा है आपने संदीप जी।🙏

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  4. आभार आपका रेणु जी। आपका सारगर्भित टिप्पणी करने का तरीका वाकई सिखाने वाला है।

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