नदी किनारे नरम रेत पर
अब भी चस्पा है
बचपन
और
मेरी अबोध उम्र के निशान।
नदी भी तब
अबोध हो जाया करती थी
बार-बार
मेरे पैरों में पानी के मोटे-मोटे छींटे मार
लहरों में खिलखिलाती थी।
किनारा कच्चा था
लेकिन
नदी से उसका रिश्ता
मजबूत था
कभी भी नदी ने
उस किनारे को पीछे नहीं धकेला
हर बार
उसे छूती हुई
गुजर जाती।
उस किनारे कहीं
नदी की रेत में
एक घरोंदा बनाया था
जो आज तक
है
मेरे मन, भाव, शब्दों और नदी के भरोसे में।
मेरे पदचिन्ह
नदी के मुहाने तक चस्पा हैं
उसके बाद नदी है
नदी है
और
मेरी आचार संहिता।
बेहतरीन भाव प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत आभार आपका अनीता जी
ReplyDeleteकाश नदी कहकर सुना पाती और दिखा पाती अपने सीने पर चस्पा अपने आत्मीय और स्नेही जनों के पद चिन्ह या खिलखिला पाती किसी के अबोध बचपन की मासूम शरारतों को याद करते हुए। पर उसका मौन उसके जीवन पर भारी पड़ गया।बहुत अनमोल होता है नदी और मानव के मौन प्रेम का संस्कार ।बहुत ही भावपूर्ण लिखा है आपने संदीप जी।🙏
ReplyDeleteआभार आपका रेणु जी। आपका सारगर्भित टिप्पणी करने का तरीका वाकई सिखाने वाला है।
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