खरापन इस दौर में
एकांकी हो जाने का फार्मूला है
सच
और
सच के समान कुछ भी
यहां हमेशा
नंगा ही नजर आएगा।
फटेहाल सच
और
भयभीत आदमी
एक सा नजर आता है।
आदमी की पीठ पर
आदमीयत है
और पर
हजार सवाल।
भयभीत आदमी हर पल
हो रहा है नंगा।
नग्नता
इस दौर में
खुलेपन का तर्क है।
तर्क और अर्थ के बीच
आम आदमी
खोज रहा है
अपने आप को
उस नग्नता भरे माहौल में।
एक दिन
पन्नों पर केवल
नग्नता होगी
तर्कों की पीठ पर
बैठ
भयभीत और भ्रमित सी।
तब
आम आदमी
नौंच रहा होगा उन तर्कों के पीछे
छिपी नपुंसकता को
छलनी-छलनी हो जाने तक।
आम आदमी
कई जगहों से फटा हुआ है
उधड़ा सा
अकेला
और
गुस्सैल।
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