मैं
रेतीला सा
सख्त इच्छाओं को
पीठ पर
टांगें
चलता जा रहा हूँ
समुद्र किनारे
गीली मिट्टी पर।
पैरों
के निशान
गहरे हैं
लेकिन
हर पांचवें कदम
पलटकर देखता
हूँ
कुछ निशान
पानी
पी चुके नज़र आते हैं
कुछ
मेरे बढ़ने का
कर रहे हैं
बेसब्री से इंतज़ार।
पीठ पर लदी
सख्त इच्छाएं
पसीज रही हैं
मेरे
रेतीले होने पर
उसे ऐतऱाज है।
सोचता हूँ
रेतीला
होना
सख्त होने के खिलाफ
गवाही है
या एकालाप।
इतना ही समझ पाया
रेतीला होना
इच्छाओं के विपरीत
एक
साहसिक कदम है।
हर पल
बिखर रहा हूँ
समय की पूछ
के
निशानों की आहट से...।
संदीप कुमार शर्मा
(फोटोग्राफ...अतुल श्रीवास्तव जी)
हर पांचवा कदम..गहन विवेचन से परिपूर्ण रचना..
ReplyDeleteआभार आपका...।
Deleteरेतीले और सागर क करीब होने पर खोने का एहसास तो रहगा ... पर मतलब तो चलने से है ... जो बहुत जरूरी है ... अच्छी रचना है ...
ReplyDeleteजी आभार आपका...।
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