कागज की नाव
इस बार
रखी ही रह गई
किताब के पन्नों के भीतर
अबकी
बारिश की जगह बादल आए
और
आ गई अंजाने ही आंधी।
बच्चे ने नाव
सहेजकर रख दी
उस पर अगले वर्ष की तिथि लिखकर
जो उसे
पिता ने बताई
यह कहते हुए
काश कि
अगली बारिश जरुर हो।
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
कागज की नाव
इस बार
रखी ही रह गई
किताब के पन्नों के भीतर
अबकी
बारिश की जगह बादल आए
और
आ गई अंजाने ही आंधी।
बच्चे ने नाव
सहेजकर रख दी
उस पर अगले वर्ष की तिथि लिखकर
जो उसे
पिता ने बताई
यह कहते हुए
काश कि
अगली बारिश जरुर हो।
खरापन इस दौर में
एकांकी हो जाने का फार्मूला है
सच
और
सच के समान कुछ भी
यहां हमेशा
नंगा ही नजर आएगा।
फटेहाल सच
और
भयभीत आदमी
एक सा नजर आता है।
आदमी की पीठ पर
आदमीयत है
और पर
हजार सवाल।
भयभीत आदमी हर पल
हो रहा है नंगा।
नग्नता
इस दौर में
खुलेपन का तर्क है।
तर्क और अर्थ के बीच
आम आदमी
खोज रहा है
अपने आप को
उस नग्नता भरे माहौल में।
एक दिन
पन्नों पर केवल
नग्नता होगी
तर्कों की पीठ पर
बैठ
भयभीत और भ्रमित सी।
तब
आम आदमी
नौंच रहा होगा उन तर्कों के पीछे
छिपी नपुंसकता को
छलनी-छलनी हो जाने तक।
आम आदमी
कई जगहों से फटा हुआ है
उधड़ा सा
अकेला
और
गुस्सैल।
अब भी चस्पा है
बचपन
और
मेरी अबोध उम्र के निशान।
नदी भी तब
अबोध हो जाया करती थी
बार-बार
मेरे पैरों में पानी के मोटे-मोटे छींटे मार
लहरों में खिलखिलाती थी।
किनारा कच्चा था
लेकिन
नदी से उसका रिश्ता
मजबूत था
कभी भी नदी ने
उस किनारे को पीछे नहीं धकेला
हर बार
उसे छूती हुई
गुजर जाती।
उस किनारे कहीं
नदी की रेत में
एक घरोंदा बनाया था
जो आज तक
है
मेरे मन, भाव, शब्दों और नदी के भरोसे में।
मेरे पदचिन्ह
नदी के मुहाने तक चस्पा हैं
उसके बाद नदी है
नदी है
और
मेरी आचार संहिता।
तपिश के बाद
नदी की पीठ पर
फफोले हैं
और
खरोंच के निशान
हर रात
खरोंची जाती है
देह
की रेत
रोज हटाकर
खंगाला जाता है
गहरे तक.
हर रात
ऩोंची गई नदी
सुबह दोबारा शांत बहने लगती है
अपने जख्मों में दोबारा
रेत भरती है.
नदी की आत्मा
तक
गहरे निशान हैं
छूकर देखिएगा
नदी रिश्तों में नमक होती जा रही है.
एक दिन
खरोंची नदी
पीठ के बल सो जाएगी
हमेशा के लिए
तब तक हम
सीमेंट से जम चुके होंगे
अपने भीतर पैर लटकाए.
नदी
से रिश्ता
अब
सूख गया है
या
नदी के साथ
बारिश के दिनों वाले
मटमैले पानी के साथ
बहकर
समुद्र के पानी में मिलकर
खारा हो गया है।
नदी से रिश्ते में देखे जा सकते हैं
हजार दरकन
और
योजन सूखा।
एक दिन
रिश्ते के बेहतर होने की आस ढोती हुई नदी
समा जाएगी
हमेशा के लिए पाताल में।
नदी
और
हमारे रिश्ते में
अब भी
उम्मीद की नमी है
चाहें तो
बो लें कुछ अपनापन
रिश्ता
और बहुत सी नदी।
कागज की नाव इस बार रखी ही रह गई किताब के पन्नों के भीतर अबकी बारिश की जगह बादल आए और आ गई अंजाने ही आंधी। बच्चे ने नाव सहेजकर रख दी उस पर अग...