बोझिल सी सांझ
के बाद
कोई सुबह आती है
जो दोपहर की तपिश साथ लाती है
और
उसमें घुल जाया करता है
पूरा जीवन।
उसके बाद
थके शरीर पर
होले होले शीतल वायु
लगाती रहती है मरहम।
फिर
कोई सांझ बोझिल नहीं होती।
सुबह, दोपहर और सांझ
यही तो
जीवन है
और
हरेक का अपना ओरा।
सुबह गहरे इंतजार के बाद होती है
कई स्याह रातों के कटने के बाद।
दोपहर जल्द नहीं कटती
थकाकर पूरी उम्र को चकनाचूर कर देती है।
और
सांझ उस दौर का नाम है
जब आप थके शरीर को
कमजोर पैरों पर
अनिच्छा भरे माहौल में
रोज कुछ कदम
चलाते हो, थकाते हो
और
सो जाते हो...।
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