तुम्हें
उम्रदराज़ होना
पसंद नहीं है
तुम डरते हो
उस अथाह सूखे से
बेलगाम सन्नाटे से
उस एकांकी समाज से
उस स्याह सच से।
उम्रदराज़
अकेलेपन में चीखते
चेहरों का समाज है।
सूखे और बेजान
शरीर
एक - दूसरे
को समझा रहे हैं
अपना-अपना समाजवाद।
थके शरीरों
पर
चिपटे हैं ढेर सारे सवाल।
सवालों के पैर नहीं हैं
चेहरे हैं
चेहरों के बीच
कुछ चेहरे
पुराने आईने
से हैं।
पीली सी शक्ल
उस आईने के पार
देखना चाहती है
उम्र के
सुनहरी दिन
भंवरों का
खामोशी भेदता झूठ
चेहरों पर भाव
और
उन पर
बरसता नेह संसार।
ओह वह
कितना सच था
या ये
कितना खरा है।
थकन और उम्र के बीच
शरीर
एक सच है
और सच
हमेशा आईने में
नहीं ठहर पाता।
सच के
आईने
एक उम्र अपने साथ
रखती है
और एक उम्र
उसे तोड़ देती है।
उम्रदराज़ समाज
अब
कायदे बुन रहा है
अपना समाज बुन रहा है
हमारे
इस समाज की
चारदीवारी में
वह
गहरे उतरना चाहता है
क्योंकि
चारदीवारी
सीमा भी है
और सच भी
जो
उम्रदराज़ कालखंड
को
नकार नहीं सकती।