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Friday, May 14, 2021

कायदे बुन रहा है उम्रदराज़ समाज


 तुम्हें

उम्रदराज़ होना

पसंद नहीं है

तुम डरते हो

उस अथाह सूखे से

बेलगाम सन्नाटे से

उस एकांकी समाज से

उस स्याह सच से।

उम्रदराज़

अकेलेपन में चीखते

चेहरों का समाज है।

सूखे और बेजान

शरीर

एक - दूसरे

को समझा रहे हैं

अपना-अपना समाजवाद।

थके शरीरों

पर

चिपटे हैं ढेर सारे सवाल।

सवालों के पैर नहीं हैं

चेहरे हैं

चेहरों के बीच

कुछ चेहरे

पुराने आईने

से हैं।

पीली सी शक्ल

उस आईने के पार

देखना चाहती है

उम्र के

सुनहरी दिन

भंवरों का

खामोशी भेदता झूठ

चेहरों पर भाव

और

उन पर

बरसता नेह संसार।

ओह वह

कितना सच था

या ये

कितना खरा है।

थकन और उम्र के बीच

शरीर

एक सच है

और सच

हमेशा आईने में

नहीं ठहर पाता।

सच के

आईने

एक उम्र अपने साथ

रखती है

और एक उम्र

उसे तोड़ देती है।

उम्रदराज़ समाज

अब

कायदे बुन रहा है

अपना समाज बुन रहा है

हमारे

इस समाज की

चारदीवारी में

वह

गहरे उतरना चाहता है

क्योंकि

चारदीवारी

सीमा भी है

और सच भी

जो

उम्रदराज़ कालखंड

को

नकार नहीं सकती।

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