मैंने
एक पेड़ को
उम्रदराज़ मौसम में
खिलखिलाते देखा।
अपने
पुराने
बदनण्पर
नई
पत्तियों वाली पोशाक में
बचपन
सा
झूम रहा था।
गिरे हुए पत्तों के बीच
पेड़
सहमा सा नीचे भी देखता
और
पत्तियों के गिरने पर
रुआंसा हो जाता।
नई कोपलें
टकटकी लगाए
देख रही थीं
पेड़ को
कभी
सूखे पत्तों के
करारे और जर्जर
जिस्मों को।
पेड़ के चेहरे पर
दो सदी
के
भाव हैं
उम्रदराज़ बचपन
और
सदाबहार सच।
दोनों के
एक
मायने हैं
जैसे
उम्र की
कोरों पर
फटी
कोई पोशाक होती है।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०५-०३-२०२१) को 'निसर्ग महा दानी'(चर्चा अंक- ३९९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
जी बहुत आभार आपका...।
Deleteबहुत सुन्दर भाव . सच है उम्रदराज़ होने पर बचपन में ही जीना चाहिए .
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका...।
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन ,एक उम्र के बाद बच्चें हो ही जाते है सभी ,मेरा मानना तो ये है कि -हम हमेशा ही बच्चें ही होते है बस जाहिर नहीं होने देते।
ReplyDeleteसादर नमन आपको
सच कह रही हैं कामिनी जी...। आभार आपका...
Deleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका...।
ReplyDeleteसुंदर सृजन।
ReplyDeleteहृदय तक उतरते उद्गार।
आभार आपका...
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