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Saturday, April 3, 2021

स्याह वक्त बोध का शिखर है



दो 

मौसम

दो 

उम्र 

और 

सारे सच।

अबोध सुर्ख

और 

स्याह बुढ़ापा

दोनों

गहरे होते हैं।

उम्र का सुर्ख 

मौसम

अबोध से बोध 

की ओर 

सफर है।

उम्र का स्याह

वक्त

बोध का शिखर है।

दो 

रंग उम्र नहीं हो सकते

उम्र 

रंग से उकेरी जा 

सकती है।

कोई 

सर्द सुबह 

कुछ भीग रहा होता है

अंतस 

में गहरे

वो सूखकर

स्याह हो जाता है

बुजुर्ग 

हो जाता है।

स्याह मौसम में 

सुर्खी को समझना

अबोध वक्त

को 

दोबारा टांकने जैसा है।

थकी उम्र की

धुंधली पायदान

पर 

केवल 

सच दिखता है

सुर्खी और स्याह 

मौसम के बीच।



7 comments:

  1. स्याह वक़्त ही बहुत कुछ सिखाता है बोध का ही शिखर हुआ न .
    हो सकता है आपने कुछ और सोचा हो ।
    आपकी हर रचना विचार करने योग्य होती है यूँ ही सहजता से पढ़ कर नहीं समझी जा सकती ।

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    1. आपको बहुत आभारी हूं संगीता जी। बोध के मायने बदल गए हैं, हम जिसे अपने ज्ञान का शीर्ष मान लें वह हमारा अपना बोध शीर्ष हो जाता है। चुनिंदा ही होंगे जो असल बोध और उसके शीर्ष पर बात करना चाहते हैं। जीवन का हर पल और विशेषकर स्याह समय सबसे कठिन सबक होता है और उस दौर में सीखना चाहिए बिना भयभीत हुए। बहुत आभारी हूं आप मेरी रचना को पसंद करती हैं।

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  2. थकी उम्र की

    धुंधली पायदान

    पर

    केवल

    सच दिखता है

    सुर्खी और स्याह

    मौसम के बीच।..जीवन संदर्भों को रेखांकित करती सार्थक एवम गूढ़ रचना ।

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    Replies
    1. जीवन बहुत सिखाता है... हर कदम...। आभार आपका...।

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  3. This comment has been removed by the author.

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  4. यूँ तो बुढापा जीवन के गरिमामय रूप को दिखाता है पर इसकी विद्रूपता इसके सारे रंग चाट जाती है | बहुत अच्छा लिखा आपने संदीप जी | दो मौसम जीवन के--- पर कितना अंतर है दोनों में |

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  5. बहुत आभार रेणु जी...।

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