रंगों के शहर में
नजरें
कारोबारी हो जाया करती हैं।
रंगों
का कारोबार
बदन
पर केंचुए सा
रेंगता है।
रंगों
की पीढ़ी
उम्र
से पहले
उन्हें ओढ़कर
सतरंगी आकाश
पर टांकने लगती है
कोरे जज्बाती
सपने।
सपनों
का रंग
जरूरी नहीं
रंगों की दुनिया
की
तरह
आकर्षण
का आवरण लिए हो।
सपनों और रंगों में
एक
महीन सा फर्क है
एक दरार
की कोरों को
सहलाती हुई हवा
और
उसकी भूख
का दैहिक
आवरण।
भटकाव
और
लक्ष्य
के बीच कहीं
सपनों की दीवारों पर
अक्सर रंगों
की उम्र
रेंगती है केंचुए की भांति।
सपनों
में रंगों का प्रवेश
उसके आवरण पर
दरारों की तरह
चटखन छोड़ जाता है।
सपने
बैखौफ होते हैं
बिना रंगों के
समाज में
वहां
भटकाव का
कारोबार नहीं होता...।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२५-०२-२०२१) को 'असर अब गहरा होगा' (चर्चा अंक-३९८८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
बहुत आभार आपका अनीता सैनी जी। मुझे खुशी हुई...।
Deleteगहन विश्लेषणात्मक चिंतन देती सुंदर रचना।
ReplyDeleteअप्रतिम।
बहुत आभार आपका---
ReplyDeleteयथार्थ के धरातल पर सृजित चिंतनपरक रचना । अति सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
Deleteरंगों के माध्यम से कटु सत्य को उजागर कर दिया है ।।गहन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
Delete
ReplyDeleteरंगों
का कारोबार
बदन
पर केंचुए सा
रेंगता है।
बहुत खूब लिखा है, आपने।
👍👍👍👍👍
बहुत आभार आपका
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
Deleteबहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
Deleteवाह! सुंदर!!!
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
Deleteसुन्दर बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
Deleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
Deleteबहुत आभार आपका
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteसपने
ReplyDeleteबैखौफ होते हैं//बिना रंगों के *समाज में /वहां /भटकाव का /कारोबार नहीं होता...।//
जब सपने पूरे होते हैं तो रंग सपनों की चाकरी करते हैं | गूढ़ भावार्थ लिए सार्थक रचना संदीप जी |