रंगों के शहर में
नजरें
कारोबारी हो जाया करती हैं।
रंगों
का कारोबार
बदन
पर केंचुए सा
रेंगता है।
रंगों
की पीढ़ी
उम्र
से पहले
उन्हें ओढ़कर
सतरंगी आकाश
पर टांकने लगती है
कोरे जज्बाती
सपने।
सपनों
का रंग
जरूरी नहीं
रंगों की दुनिया
की
तरह
आकर्षण
का आवरण लिए हो।
सपनों और रंगों में
एक
महीन सा फर्क है
एक दरार
की कोरों को
सहलाती हुई हवा
और
उसकी भूख
का दैहिक
आवरण।
भटकाव
और
लक्ष्य
के बीच कहीं
सपनों की दीवारों पर
अक्सर रंगों
की उम्र
रेंगती है केंचुए की भांति।
सपनों
में रंगों का प्रवेश
उसके आवरण पर
दरारों की तरह
चटखन छोड़ जाता है।
सपने
बैखौफ होते हैं
बिना रंगों के
समाज में
वहां
भटकाव का
कारोबार नहीं होता...।