मन में
कहीं
खिली हो तुम।
मन की
दीवारों पर
तुम्हारी मुस्कान
और
हमारा भरोसा
दोनों
उभरे हैं।
तुम कम बोलती हो
शब्द
ये शिकायत करते हैं
अक्सर।
तुम कहती हो
मैं
पढ़ लेता हूँ
तुम्हें
अक्सर तुमसे पहले।
ये जो
हम हैं
ये
जो
हमारी नेह गंध है
ये
कहीं
हमारे शब्दों का
एक ग्रंथ है
जो
तुम पढ़ जाती हो
एक पल में
हजारों बार
और में
जी लेता हूँ
तुम्हें
शब्दों के पार...।
आओ
छूकर देखते हैं
दीवार
जहाँ
अक्सर
हम रहते हैं
शब्दों के व्याकरण
के बीच
कठिन
और
सहजता
के परे
किसी बच्चे के
हिज्जे वाले
सबक के बीच...।
वाह।🌻
ReplyDeleteआभार आपका पाण्डेय जी
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29 -5-21) को "वो सुबह कभी तो आएगी..."(4080) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
आभार आपका कामिनी जी। रचना को सम्मान देने के लिए आभार।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 30 मई 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी यशोदा जी...आपका बहुत बहुत आभार। मेरी रचना को सम्मान देने के लिए आभारी हूं।
Deleteवाह! अलहदा सी अभिव्यक्ति, मनहर बोलती ही।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन।
जी बहुत आभार आपका इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए।
Deleteशब्दों के पार ही मिलती है नेह गंध और शब्दों के मध्य में पढ़ा जाता है भरोसा ! सुंदर रचना
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका अनीता जी।
ReplyDeleteशब्दों के व्याकरण
ReplyDeleteके बीच
कठिन
और
सहजता
के परे
किसी बच्चे के
हिज्जे वाले
सबक के बीच...।सुंदर भावों का अनोखा सृजन ।
जी बहुत आभार आपका स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए जिज्ञासा जी।
Deleteमन में
ReplyDeleteकहीं
खिली हो तुम।
मन की
दीवारों पर
तुम्हारी मुस्कान
और
हमारा भरोसा
दोनों
उभरे हैं।
तुम कम बोलती हो
शब्द
ये शिकायत करते हैं
वाह!बहुत ही खूबसूरत रचना!
जी बहुत आभार आपका मनीषा जी।
Deleteशब्दों से परे
ReplyDeleteजो हमारा ग्रंथ है
वही तो बस
नेह गंध है ।
बहुत खूबसूरती से लिखे ये एहसास ।
बहुत खूब
जी बहुत आभार आपका संगीता जी।
Deleteबहुत कोमल, बहुत सुंदर कविता...
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका
Deleteशब्दों से परे
ReplyDeleteजो हमारा ग्रंथ है
वही तो बस
नेह गंध है ।
वाह!!!
नेह गन्ध...बहुत ही लाजवाब सृजन।
जी बहुत आभार आपका
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