दिन स्याह हैं
कड़वे हैं
कंठ भिंच रहे हैं
रात की कालिख
पूरे दिन पर सवाल
उकेर रही है
दूर
बहुत दूर
कोई खूबसूरत सुबह
रात की निराशा को
चीरकर
बढ़ रही हमारी ओर
देखो इंतजार करो
भोर होने वाली है
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...
निराशा से आशा की और बढ़ते कदम ,सुंदर प्रस्तुति |
ReplyDeleteबहुत आभार आपका अनुपमा जी।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ अगस्त २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी बहुत आभार आपका श्वेता जी। मेरी रचना को शामिल करने के लिए साधुवाद।
Deleteजी बहुत आभार आपका मीना जी। मेरी रचना को शामिल करने के लिए साधुवाद।
ReplyDeleteआशा का संचार करती बहुत सुंदर रचना, संदीप भाई।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका ज्योति जी।
Deleteबेहद प्यारी रचना
ReplyDeleteसाधुवाद
बहुत बहुत आभार आपका विभा जी।
Deleteतभी कहते न कि उम्मीद पर दुनिया कायम ।
ReplyDeleteकभी तो अव्यवस्था रूपी अंधेरा छंटेगा । लेकिन हम अँधेरों में भटकने के आदी हैं , रोशनी बर्दाश्त भी नहीं होती ।
सुंदर अभिव्यक्ति ।
बहुत बहुत आभार आपका संगीता जी।
Deleteबहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
Deleteदूर
ReplyDeleteबहुत दूर
कोई खूबसूरत सुबह
रात की निराशा को
चीरकर
बढ़ रही हमारी ओर
देखो इंतजार करो
भोर होने वाली है
बस इसी भोर का इंतजार है कब ये स्याह रात छँटेगी...
आशा का संचार करती बहुत सुन्दर कृति।
आभार आपका सुधा जी...।
Deleteबहुत सुंदर, सकारात्मकता का संचार करती सुंदर रचना ।
ReplyDeleteआभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteबहुत बहुत सुंदर!!
ReplyDeleteआशा का सूरज जरूर उदय होता है।
सुखद अहसास।
बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteबस इसी इसी में सभी हैं कि भोर होने वाली है
ReplyDeleteआभार आपका प्रीति जी...लेकिन उम्मीद की भोर हमेशा रहती है...।
Deleteइंतज़ार वही बेहतर होता है शर्मा जी जो कभी-न-कभी ख़त्म ज़रूर हो क्योंकि इंतज़ार का मज़ा शायरी में तो आ सकता है, ज़िन्दगी में नहीं। लम्बा इंतज़ार बड़ा बोझिल हो जाता है लेकिन उसका सिला मिल जाए तो शिकवा भी नहीं रहता। आपकी कविता बहुत अच्छी है क्योंकि नाउम्मीदी के अंधेरे में उम्मीद की शफ़क़ जगाती है। इस कविता की आख़िरी सतरों ने मुझे सुशील सिद्धार्थ जी की एक बरसों पुरानी ग़ज़ल का एक शेर याद दिला दिया:
ReplyDeleteतुम क्या जानो क्यों हम उगते सूरज के दीवाने हैं
एक सुबह की ख़ातिर हमने सारी उम्र गुज़ारी है
मन प्रसन्न हो गया जितेंद्र जी...शेर जैसे मुझ पर सटीक है...। जीवन में शब्द आपके सच्चे दोस्त होते है...। आभार आपका...।
Deleteसुंदर आशा जगाती पंक्तियाँ.. रात जब सबसे स्याह हो तब सोचो भोर होने वाली है तो वह स्याह रात गुजारना आसान हो जाता है....
ReplyDeleteबहुत आभार आपका विकास जी...।
Deleteबहुत सुन्दर मधुर रचना
ReplyDeleteआभार आपका आलोक जी...
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी सारी रचनाएँ मेरी अंतरात्मा में उतर जाती है। आज मुझे आपकी रचनाएँ पढने का मन हुआ तो आपका ब्लॉग ढूंढकर पढा। मैं ब्लॉग पर कई महिनों बाद आया हूँ। आप बेहतरीन हैं।