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शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

समय उस बचपन का

 



कदम
कुछ
कदम
लौटना चाहते हैं
अपने पदचिन्हों पर।
उस मंजिल के इर्द गिर्द
जहां किसी ठौर
बचपन
छोड़ आए हैं।
रेत छोड़ आए हैं
जिसमें कोई
घरोंदा
था
जिसमें
रेत की दीवारों के बीच
किसी कील पर
उलझा सा रह गया
समय
उस बचपन का।
छोड़ आए हैं
जिस डगर
बचपन के मित्र
मस्ती
अल्हड़पन
और
समझदारी के पहले की
अधपकी जमीन।
छोड़ आए हैं
किताबें और बस्ता
फटे जुर्राब
जिन्हें
अक्सर
तुरपाई से
सी दिया करते थे।
छोड़ आए हैं
बहुत सा छूट गया है
स्कूल की दीवारें
गुरूजी की घूरती आंखें
और
एक उम्र...।
अब बचपन
चांद पर किसी कोने में बसे
घर सा है
जिसे
देख सकते हैं
अतीत में
छू नहीं सकते वर्तमान में।
पदचिन्हों पर
अब
बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
कहीं
वे पिछले दिन
समा न जाएं रेत होकर
बिवाइयों में...।


18 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
    (28-11-21) को वृद्धावस्था" ( चर्चा अंक 4262) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  2. अतीत में
    छू नहीं सकते वर्तमान में।
    पदचिन्हों पर
    अब
    बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
    कहीं
    वे पिछले दिन
    समा न जाएं रेत होकर
    बिवाइयों में...। जीवन संदर्भ को परिभाषित करती सटीक अभिव्यक्ति ।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ख़ूब !
    गुलज़ार का गीत - 'छोड़ आए हम, वो गलियां'
    याद आ गया.

    जवाब देंहटाएं
  4. पदचिन्हों पर
    अब
    बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
    कहीं
    वे पिछले दिन
    समा न जाएं रेत होकर
    बिवाइयों में
    पिछले दिनों की यादें ही काफी हैं
    बहुत ही भावपूर्ण सृजन
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं
  5. पदचिन्हों पर
    अब
    बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
    कहीं
    वे पिछले दिन
    समा न जाएं रेत होकर
    बिवाइयों में...गहनता लिए हृदयस्पर्शी सृजन।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  6. उस जगह इंसान लौटता है कई बार पर मन ही मन ...
    समय का पहिया हमेशा आगे ही रहता है पीछे नहीं लौटता ... सुन्दर रचना ...

    जवाब देंहटाएं

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