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मंगलवार, 18 जनवरी 2022

रंगमंच पर बहुरूपिये सा


 
किसी दिन 

उत्सव सा

आदमी

हर पल

समय की पीठ पर 

उदय और अस्त होता है।

रंगमंच पर

बहुरूपिये सा

मुखौटे में 

रोता, हंसता, चीखता

आदमी

दरक जाता है

आदमियत की दीवार सा

टूट जाता है 

कई जगहों से।

रंगों को चेहरे पर मलता

स्याह आदमी

पूरा जीवन

कुछ नहीं खोजता

केवल

अपने आप को

भीड़ में टिमटिमाता 

पाने की जिद में

भागता रहता है

अपने आप से

कोसों दूर

किसी अपने तरह के 

आदमी की खोज में

समय की पीठ पर

गुलाबी पैरों की 

छाप छोड़ता 

बदहवास आदमी।

दरकता आदमी

धूल की दीवार है

जिसमें 

केवल सच है

टूटन है

और 

सख्त जमीन।

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 20 जनवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

    जवाब देंहटाएं
  2. मर्म को छूती यथार्थपूर्ण रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर सत्य से ओतप्रोत

    जवाब देंहटाएं

अभिव्यक्ति

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