सूखती धरा
पलायनवादी विचारधारा
आग में झुलसती प्रकृति
धरा के सीने से
पानी खींचते लोग
पानी पर चढ़कर
अट्टहास करता बाजार।
नदियों के सीने पर
उम्मीद की नमी तलाशते खेत
सिर पर बर्तन रख
घंटों का सफर
तय करते लहुलूहान पैरों वाले बच्चे
भविष्य कहे जाते हैं
खोखले वर्तमान में थकती माताएं
छोड़ चुकी हैं
पानी के लिए बच्चों का बचपन।
गोद और बचपन
अब सख्त सा सच है
गोद में बचपन अब पत्थर हो गया है।
पानी ढोते बच्चों की आंखें
लटक रही हैं पेट पर।
धरती दहक रही है
बचपन सूखकर दरक रहा है
भावनाएं केवल
कागज पर दर्द को
समाज का दर्शन बता कर
सतही प्रयास कर रहा है।
सूरज की गेंद
लुढ़कती बढ़ रही है मानव की ओर
ताप का साम्राज्य
सबकुछ जलाने पर आमादा है
और हम
घरों में दुबके
सतही स्वार्थी दृश्यों पर बहस में उलझे हैं।
प्रकृति का कारोबार
हमें
झुलसा देगा
पीढ़ियों तक दरकन होगी
और होगी सूखी धरा।
सोचिए
हम कहां जा रहे हैं
आंखों पर कारोबारी पट्टी बांधकर।
उंगली पकड़े बच्चे
चल नहीं पा रहे हैं
तपती धरा पर
एक दिन
गिर जाएंगे सूखे पत्तों से।
मार्मिक रचना
ReplyDeleteआभार आपका अनीता जी
Deleteआभार आपका शास्त्री जी
ReplyDeleteप्रकृति का कारोबार
ReplyDeleteहमें
झुलसा देगा
पीढ़ियों तक दरकन होगी
और होगी सूखी धरा।
सोचिए
हम कहां जा रहे हैं
किसी के पास वक़्त ही नहीं है सोचने-समझने का। जब मौत सर पर तांडव करता है तब जागते है हम और हाय-हाय करके फिर सो जाते हैं ये सोचकर कि "चलो आज का दिन गुजर गया न "
इतनी भयावह सच को जानकर भी जब किसी की आँखे नहीं खुलती तो वो मनुष्य जीते जी मरे समान है।
चिंतनपरक सृजन आदरणीय संदीप जी,सादर नमन आपको
सूखती धरा
ReplyDeleteपलायनवादी विचारधारा
आग में झुलसती प्रकृति
धरा के सीने से
पानी खींचते लोग
पानी पर चढ़कर
अट्टहास करता बाजार।..
मन को झकझोरती रचना । सच में कितनी भयावह स्थिति है । फिर भी लोग चेत नहीं रहे ।
प्रकृति के लिए चिंतित मन की हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति ।
बहुत शुभकामनाएं आपको ।
हृदयस्पर्शी।
ReplyDeleteमैं स्वयं इससे प्रोत्साहित हुआ। मैं अपने स्तर से जल संरक्षण एवं संचयन के लिए अवश्य कार्य करूँगा एवं अन्य को भी प्रोत्साहित करूँगा।