मैंने
सांझ का आंचल
सूरज को
ओढ़ाकर
उसकी
हथेली पर
चितचोर लिख दिया...।
सांझ
बावरी सी
शरमाई सी
सूरज से लिपट गई।
उसकी हथेली पर
बुनने लगी
एक और सदी।
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...
बेहद खूबसूरत अहसास ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार...
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