तुम्हें
सांझ से बतियाना पसंद है
मैं जानता हूं
तुम सांझ में खोजती हो
अपने आप को
मुझे
और
हमारे अपने दिनों की आभा को।
मैं
जानता हूं
तुम्हें सिंदूरी सांझ
इसलिए भी पसंद है
क्योंकि वह
तुम्हें अंदर से
सिंदूरी रखती है।
यकीन मानो
हमारा सांझ के साथ
ये सिंदूरी रिश्ता
उम्र
का सच्चा कोष है।
मैं
तुम्हें
और
तुम मुझे
खोज सकते हैं
सांझ के दरवाजे पर।
अलहदा कुछ नहीं है
सांझ
तुममें और मुझमें
साथ साथ
उतरती है
रोज
हर पल
हर दिन।
बेहद भावपूर्ण सृजन।
ReplyDeleteप्रकृति और मन आपस में गूँथे हुए प्रतीत होते हैं।
सादर।
बहुत आभार श्वेता जी....। प्रकृति पर सतत लेखन कर रहा हूं। पत्रकारिता के कालखंड में भी नेचर ही मेरी बीट हुआ करती थी। आभार
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2057..."क्या रेड़ मारी है आपने शेर की।" ) पर गुरुवार 04 मार्च 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी बहुत आभार आदरणीय रविंद्र जी।
Deleteवाह
ReplyDeleteजी बहुत आभार...।
Deleteवाह! लाजवाब सृजन।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी।
सादर
बहुत आभार अनीता जी...।
Deleteसुंदर अति सुन्दर भावप्रवण सृजन हृदय तक उतरते उद्गार।
ReplyDeleteसुंदर।
जु बहुत आभार आपका...।
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआभार आपका अनुराधा जी...।
Deleteसाँझ के साथ इस कदर साझा हो जाती है जब जिंदगी तो सूरज बाहर भले डूब जाता हो भीतर सदा खिला रहता है
ReplyDeleteजी सच है अनीता जी...। आभार आपका
Deleteसाँझ के साथ सिंदूरी आभा , बहुत सुन्दर भाव
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका संगीता जी...।
Deleteभावपूर्ण उम्दा रचना
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका..
Deleteसुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआभार आपका आदरणीय शास्त्री जी...।
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