सुना है
सख्त पहाड़ों
के
गांव
में
तपिश
भी नहीं है
और
गुस्सा भी नहीं।
वे
अब भी
अपनी पीठ पर
बर्फ के
बच्चों को
बैठाकर
खिलखिलाते हैं।
सुना है
वहां
सुनहरी सुबह
और
गहरी नीली
सांझ होती है।
पहाड़
अपने पैर
जमीन में
कहीं बहुत गहरे
लटकाए
बैठे हैं
चिरकाल से।
हवा
भी उसके भारी भरकम
शरीर पर
सुस्ताने आती है।
ओह
पहाड़ तुम
कभी
शहर मत आना
यहाँ
आरी और कुल्हाड़ी
का
राज है
जंगल
भी आए थे
शहर घूमने
यहीं बस गए
और अब
शहर
उन पर
पैर फैलाए
ठहाके लगाता है।
आती है
कभी कभी
जंगल के
सुबकने की आवाज़...।
मत
आना तुम शहर...।
आती है कभी कभी जंगल के सुबकने की आवाज मत आना तुम शहर | बी---- बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना |
ReplyDeleteआलोक जी आभार आपका...।
Deleteजंगल के सुबकने की आवाज, बर्फ के बच्चे, मानव के अतिक्रमण से मरणासन्न जंगल और उसकी लोलुप नजरों से सिहरते पहाड़....
ReplyDeleteसार्थक संदेश देती रचना।
जी बहुत आभार मीना जी...
Deleteजंगल//भी आए थे//शहर घूमने///
ReplyDeleteयहीं बस गए/और अब /शहर /उन पर
पैर फैलाए /ठहाके लगाता है।//आती है /कभीकभी/जंगल के /सुबकने की आवाज़...।//
उफ!! इतनी संवेदनशीलता!! केवल कवि मन ही महसूस सकता है!!!!
जी हमेशा की तरह उत्साह बढ़ाने वाली प्रतिक्रिया...। आभार...
ReplyDeleteआपकी रचना जीवंत शब्द चित्र है हर पंक्ति अपनी बात कह पाने में सक्षम है।
ReplyDeleteसुंदर बिंबों और सार्थक संदेश के द्वारा मन को झकझोरती
सराहनीय सृजन।
-----
सादर
प्रणाम।
श्वेता जी बहुत आभारी हूं...। आपको मेरी रचना पसंद आई...ये सब अनुभव और प्रकृति के प्रति गहरे लगाव का प्रतिफल है।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-04-2021) को "आओ कोरोना का टीका लगवाएँ" (चर्चा अंक-4029) पर भी होगी।
ReplyDelete--
मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। परन्तु प्रसन्नता की बात यह है कि ब्लॉग अब भी लिखे जा रहे हैं और नये ब्लॉगों का सृजन भी हो रहा है।आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
आदरणीय शास्त्री जी बहुत आभारी हूं आपका।
Deleteपहाड़ तुम कभी शहर मत आना ... सारे भाव एक पंक्ति में सिमट गए हैं ... गहन भाव लिए सोचने पर मजबूर करती रचना ...
ReplyDeleteबहुत आभार आपका...
ReplyDeleteआपकी रचना की कुछ पंक्तियां तो दर्द सा दे गईं, वाकई इंसान बड़ा बेदर्द है, वह हमेशा से स्वार्थी रहा है,अपने लिए जीता है किसी के लिए दर्द नही,खासतौर से तो प्रकृति को अपनी अमानत समझ रौंदता रहता है,सुंदर कृति ।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका ...
ReplyDelete