सुना है
सख्त पहाड़ों
के
गांव
में
तपिश
भी नहीं है
और
गुस्सा भी नहीं।
वे
अब भी
अपनी पीठ पर
बर्फ के
बच्चों को
बैठाकर
खिलखिलाते हैं।
सुना है
वहां
सुनहरी सुबह
और
गहरी नीली
सांझ होती है।
पहाड़
अपने पैर
जमीन में
कहीं बहुत गहरे
लटकाए
बैठे हैं
चिरकाल से।
हवा
भी उसके भारी भरकम
शरीर पर
सुस्ताने आती है।
ओह
पहाड़ तुम
कभी
शहर मत आना
यहाँ
आरी और कुल्हाड़ी
का
राज है
जंगल
भी आए थे
शहर घूमने
यहीं बस गए
और अब
शहर
उन पर
पैर फैलाए
ठहाके लगाता है।
आती है
कभी कभी
जंगल के
सुबकने की आवाज़...।
मत
आना तुम शहर...।