सुबकते हुए
सुना है
नदी को।
पानी में उसके आंसू
सतह पर तैर रहे थे
उन शवों के इर्दगिर्द
जहां
उम्मीद हार गई थी।
जहां
मानवीयता हार गई थी
जहां
जीवन हारकर घुटनों के बल आ गया था।
नदी
का रोना
सदी का रोना है
नदी
शवों को नहीं ढो पाएगी
उसे
उसकी नजरों में मत गिराईये
नदी
चीख नहीं सकती
नदी
मौन को पीकर
धरातल में लौट जाएगी
सदियों
नहीं लौटेगी
वह धरा पर
क्योंकि उसका अवतरण
जीवन के लिए हुआ था
शवों को
ढोने के लिए कदाचित नहीं।
सोचियेगा
इस सदी के चेहरे पर एक दाग है
इस दौर में
एक नदी
जीवन ढोते हुए
अनचाहे ही
शवों को ढोने लगी
ओह
ये
हार है
इसके अलावा और कुछ भी नहीं।
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ReplyDeleteआज कल तो लोग बहा दे रहे ऐसे ही शवों को नदी में ।
ReplyDeleteनदी की आत्मा भी त्रस्त हो गयी है । सुंदर लेखन ।
जी बहुत आभार आपका संगीता जी। ये नदी के लिए भी अच्छा दौर नहीं है।
ReplyDeleteएकनदी/ जीवन ढोते हुए/
ReplyDeleteअनचाहे ही /शवों को ढोने लगी///
भयावह है ये कड़वा सच!!
जी रेणु जी ये सच बेहद कठिन है और जहरीला भी...लेकिन ये हम सभी ने देखा है इसलिए इसे भूल पाना भी आसान नहीं होगा।
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