मैं तुम्हें
बादल नहीं दे सकता
तुम चाहो तो
कोई एक दिन मांग लो
कोई बोनसाई दिन।
बादल में
कुछ
तुरपाई रह गई है
बादल कराह रहा है
दर्द से
उम्मीदों की चुभन
गहरी होती है।
हर आंख घूर रही है।
देखो सच
कहूँ
वो बारिश का बढ़ता
बोझ
अधिक नहीं ढो
पाएगा
फट जाएगा तार तार
हो जाएगा।
क्या अब भी चाहती हो
वो थका सा बादल।
हां
मैं जानता हूँ
तुम्हें
सपने बुनने हैं
मेरी मानो
तुम बोनसाई दिन
रख लो।
मैं बादल की
तुरपाई करता हूँ
तब तक तुम
जीवन बुन लेना।
एक दिन जब
बादलों की बेबसी
नहीं होगी
जब तुम
सपने गूंथ चुकी होगी
मैं
सुई और धागा
बादल की पीठ पर रख
सपनों के उस
बोनसाई घर में
लौट आऊंगा।
सच मैं तुम्हें बादल
नहीं दे सकता।
खूबसूरत गहरा काव्य
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
Deleteकोई बोनसाई दिन। सारगर्भित👍👌
ReplyDeleteआपका बहुत आभार अरुण जी।
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (31-05-2021 ) को 'नेता अपने सम्मान के लिए लड़ते हैं' (चर्चा अंक 4082) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
आपका बहुत आभार आदरणीय रवींद्र जी। मेरी रचना को सम्मान देने के लिए आभारी हूं।
Deleteबहुत ही उम्दा रचना!
ReplyDeleteआपका बहुत आभार मनीषा जी।
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत आभार आपका आदरणीय जोशी जी।
Deleteवाह!! बहुत ही सुंदर सृजन संदीप जी, सादर नमन
ReplyDeleteबहुत आभार आपका कामिनी जी।
Deleteबादल में
ReplyDeleteकुछ
तुरपाई रह गई है
वाह !!! लाजवाब !!!
बहुत आभार आपका मैम।
Deleteगज़ब !
ReplyDeleteबहुत ही अद्भुत रचना ।
मैं तुम्हें बादल नहीं दे सकता ,तुरपन जो बाकी है।
वाह!
बहुत आभार आपका
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