सुबह
कब आएगी
बादलों के फटे आंचल में
कहीं
उम्मीद
जब्त है
झांक रही है।
धरती पर
किस्मों की
भीड़ है
आदमी और आदमी
के बीच
एक
रेखा है महीन
बहुत महीन
जो सुलग रही है
दहक रहे हैं
आदमी।
विचारों में
एकांकीपन का जंगल है
जंगल में
भटक रहे हैं शरीर।
पत्थरों का युग
लौट आया है
आदमी
आदमी के बीच
महत्वाकांक्षा की
रेत तप रही है
रेत के बहुत नीचे
पीढ़ी
तप रही है इस जंगल में।
पीढ़ी
के अब
कान बड़े हैं
वो फुसफुसाहट से
अंकुरित हुई है।
अब धरती के
ऊपर
और
नीचे
केवल जंगल है
शरीरों का
दूषित
वैचारिकता का स्याह जंगल।
सुबह
अब सदी के बाद
आएगी।
वाह, बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत आभार पाण्डेय जी...।
Deleteगहन भावों की अविरल बहती हुई अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआभारी हूं आपका जिज्ञासा जी
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