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Tuesday, June 1, 2021

इस जंगल में


 

सुबह

कब आएगी

बादलों के फटे आंचल में

कहीं

उम्मीद

जब्त है

झांक रही है।

धरती पर

किस्मों की

भीड़ है

आदमी और आदमी

के बीच

एक

रेखा है महीन

बहुत महीन

जो सुलग रही है

दहक रहे हैं

आदमी।

विचारों में

एकांकीपन का जंगल है

जंगल में

भटक रहे हैं शरीर।

पत्थरों का युग

लौट आया है

आदमी

आदमी के बीच

महत्वाकांक्षा की

रेत तप रही है

रेत के बहुत नीचे

पीढ़ी

तप रही है इस जंगल में।

पीढ़ी

के अब

कान बड़े हैं

वो फुसफुसाहट से

अंकुरित हुई है।

अब धरती के

ऊपर

और

नीचे

केवल जंगल है

शरीरों का

दूषित

वैचारिकता का स्याह जंगल।

सुबह

अब सदी के बाद

आएगी।

4 comments:

  1. Replies
    1. बहुत आभार पाण्डेय जी...।

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  2. गहन भावों की अविरल बहती हुई अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभारी हूं आपका जिज्ञासा जी

      Delete

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